त्राटक क्रिया के फल
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है
मोचनं नेत्ररोगाणां तन्द्रादिनां कपाटकम्।
यतनतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाठकपेटकम्।।
यह त्राटक क्रिया नेत्र रोगो का मोचन करती है। अर्थात नेत्र रोगो को दूर करती है। तन्द्रा के कपाट बंद करती है। यत्न के साथ इस त्राटक को गोपनीय रखना चाहिये क्योकि यह सोने की पेटी के समान है।
घेरण्ड संहिता में भी कहा गया है की त्राटक का अभ्यास साधक को साम्भवी मुद्रा की सिद्धि देता है। नेत्ररोगो को दूर करके दिव्य दृष्टि प्रदान करती है।
स्वयं के कुछ शोध के निष्कर्षो से यह स्पष्ट हुआ है की त्राटक सभी नेत्ररोगो का नाश करता है। जैसे सफेद या काला मोतिया बिन्द,निकट या दूर दृष्टि दोष ,आँख की पुतली का सही न घूमना ,पढ़ते समय आँखों में दर्द होना आदि। सफेद व काले मोतिया की अवस्था में साधक को लम्बा अभ्यास करना होता है। दीर्ध काल के त्राटक अभ्यास से यह कट जाता है और साधक की दृष्टि निर्मल हो जाती है।
दूर दृष्टि व निकट दृष्टि दोष के शोध में अलग अलग ढंग से त्राटक अभ्यास करने से साधक को अतिशीध्र लाभ होता है। जैसे दूर दृष्टि दोष में साधक का लक्ष्य बिंदु करीब पांच से छः फुट की दूरी पर होना चाहिए।
इस प्रकार लक्ष्य का निर्धारण करने से साधक को अतिशीध्र लाभ मिलता है।
उपरोक्त रोगो से पीड़ित रोगियों का अध्ययन करने से स्पष्ट हुआ की इन रोगो में दीर्ध कालीन अभ्यास सर्वाधिक महत्त्व रखता है।उसके बाद आपका लक्ष्य चयन ,लक्ष्य से आँखों की दूरी,लक्ष्य का आकार,लक्ष्य का रंग आदि,ये मुख्य बिंदु है जो साधक को लाभ पहुचाने में आने वाले बाधक व साधक तत्व है। जैसे अगर कोई रोगी जिसे मोतिया बिंद है उसे त्राटक के लिए लक्ष्य बिंदु या अन्य सूक्ष्म लक्ष्य का चयन न करके रौशनी से संबंधित लक्ष्य जैसे मोमबत्ती,बल्ब,दीया आदि का चयन करना चाहिए। निकट व दूर दृष्टि दोष में रौशनी का लक्ष्य अतिशीघ्र लाभ देता है।
प्रयोगो में यह पाया गया है की बल्ब से उत्तम मोमबत्ती तथा मोमबत्ती से उत्तम घी के दिया का त्राटक है।
और अधिक सूक्ष्मता से तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह पाया गया की देशी गाय के घी से त्राटक का अभ्यास करने वाले साधक को अन्य प्रकार के घी से त्राटक का अभ्यास करने वाले साधक की अपेक्षा जल्दी व अधिक लाभ होता है।
अतः कहा जा सकता है की देशी गाय के घी के दीये से त्राटक का अभ्यास करना सर्वोत्तम है।
त्राटक क्रिया का विश्लेषण
साधारणतय सभी षट्कर्म क्रियाए शरीर शोधन की क्रियाए है। त्राटक भी एक शोधन क्रिया है। परन्तु यह आंतरिक शोधन क्रिया है। वस्तुतः कुछ योगियों ने तो त्राटक क्रिया को षट्कर्म क्रियाओ से अतिसूक्ष्म बताया है। और त्राटक को ध्यान की अवस्था में रखा है। वास्तव में अगर त्राटक का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाये तो यह ध्यान ही है। जिस प्रकार ध्यान में हम भीतरी किसी विषय पर किसी भी प्रकार मन को स्थिर करते है उसी प्रकार त्राटक में मन को किसी बाहय सूक्ष्म बिंदु पर या लक्ष्य पर स्थिर करते है। त्राटक की सम्पूर्ण प्रक्रिया वही है जो ध्यान की है। त्राटक क्रिया स्वम् ध्यान की बधाओ को भी दूर करता है। त्राटक क्रिया अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को,सम्पूर्ण आत्म शक्ति को ,सम्पूर्ण चेतना शक्ति को ,सम्पूर्ण ज्ञान शक्ति को संगठित करती है ,आत्मकेंद्रित करती है। त्राटक से तन्द्रा का नाश होता है (अनेक प्रयास करने के बाद भी शाधक को ध्यान में नींद आती है ,बार बार नींद के झटके लगते है इसे ही तन्द्रा कहते है ) तन्द्रा लगभग सभी साधको के लिए प्रारम्भ में बड़ा दुर्भेद्य शत्रु है।
अब अगर हम त्राटक श्लोक के एक एक शब्द का विवेचन करे ,जैसे
निश्चल दृष्टि हो या स्थिरदृष्टि हो :शारीरिक स्थिरता से प्रारम्भ करके मानसिक स्थिरता तक। अर्थात कामुक विचारो को ब्रह्मचर्य रूपी ढाल से रोककर,क्रोध जैसे दुर्जेय हाथी को समर्पण भाव से नियंत्रित करके,ईर्ष्या जैसी भयावह अग्नि का प्रेम रुपी जल से नाश करके,लोभ जैसे बाहुबली शत्रु को संतोष जैसे अचुक शस्त्र से हराकर विकार रहित होना ही, स्थिर होना है। अब दृष्टि की स्थिरता की बात करे तो जिस अवस्था में आँखे खुली हो उसी दशा में लगातार बनाये रखना ,अर्थ आँखों को समभाव में रखना। क्रिया के बीच में आँखों को सूक्ष्म में भी कम या ज्यादा न खोलना ना बंद करना।
जब हम त्राटक क्रिया करते है आँखे पूर्ण रूप से खुली होने के बाद भी स्थिर नहीं हो पाती। बाहर से देखने से ऐसा लगेगा की आँखे स्थिर है परन्तु स्थिर नहीं होती है। आँखों के अंदर अनेक अतिसूक्ष्म नाडियाँ बार बार फड़कती रहती है। वे शांत नहीं हो पाती। बहुत अभ्यास के बाद भी नाड़ियाँ सूक्ष्म लक्ष्य के सूक्ष्म बिंदु पर स्थिर नहीं होती है नाड़ियो को शांत करके दृष्टि को स्थिर करना साधक की एक बड़ी समस्या होती है। इसलिए ही प्रथम, दृष्टि को स्थिर करने का निर्देश दिया गया है।
सूक्ष्म लक्ष्य: त्राटक में दुसरा उदेश्य सूक्ष्म लक्ष्य कहा गया है तात्पर्य यह है की त्राटक स्थूल पर नहीं होगा। लक्ष्य का निर्धारण बारीक छोटा,उज्जवल देखकर करना चाहिए क्योकि त्राटक में सूक्ष्म लक्ष्य ही स्थूल होना होता है।दूसरा उदेश्य यह भी रहा होगा की मनुष्य के मन का स्वभाव है की यह सूक्ष्म से हटकर स्थूल की तरफ भागता है सम्पूर्ण जीवन मन स्थूल में हि रमा रहता है क्योकि स्थूल इसका पसंदीदा विषय है।
सूक्ष्म को लक्ष्य बनाना यह भी संकेत करता है की मन को अभ्यास से धीरे धीरे सूक्ष्म मार्गी बनाना है
जब मन सूक्ष्म में स्थिर होने लगता है तो व्यक्ति के लगभग प्रत्येक प्रकार से प्रत्येक सांसारिक,
दैविक,दैहिक दृष्टिकोण स्वभाव से बदलने लगते है।
आँसू गिरने तक आँखों को खोलना :आँखों में आंसू आने तक पलको को बिना झपकाये रोकना जबकि आँखे स्वतः ही झपकती रहती है किसी भी अवस्था में वे अपना कार्य नहीं छोड़ती है.अगर हम कभी उन्हें रोकने का प्रयास करते है तो कुछ पलो में ही वे झपकने लगती है।लगभग तीन से चार माह तक पलको को रोकते हुए अभ्यास करते रहे अगर झपकती भी है तो दोबारा अभ्यास करे चार माह के बाद पलके रुकना शुरू हो जाती है। और फिर लम्बे समय तक बिना झपकाये रूक जाती है।
अनेक समस्याएं नए साधक को प्रारम्भ में होती है जैसे आँखों से पानी आना,
खुजली आना ,दर्द होना,आँखों में सूजन आना। इन सब समस्याओ से घबराये नहीं लगातार धीरे
धीरे अभ्यास करते रहे।कुछ दिनों बाद ये समस्याएं स्वतः ही दूर हो जाती है। जब अभ्यास बढ़ने लगता है तो सूक्ष्म लक्ष्य जैसे मोमबत्ती की लौ पहले धीरे धीरे कम होती है एक वक्त के बाद वो एक बहुत ही छोटे से बिंदु के रूप में हो जाती है।कुछ दिनों तक वो बिंदु उसी आकार में रहता है फिर वह धीरे धीरे बढ़ने लगता है लम्बे अभ्यास के बाद वही लौ सब तरफ फैल जाती है। इस दौरान साधक को अनेक अजीब से अनुभव होते है जैसे शरीर का बहुत ही ज्यादा हल्का हो जाना ,कभी कभी एक अजीब सा अलौकिक सा कभी पहले न आया हुआ मजा आता है। उन सब अनुभवों को शायद ही कोई साधक शब्दों में कह पाये ,वो तो सिर्फ अनुभूति के विषय है। उन्हें कोई शब्दों में कह ही नहीं नहीं सकता। त्राटक की बढ़ी हुए अवस्था ही सम्मोहन विद्या होती है जिससे व्यक्ति दूसरे को सम्मोहित करके अपने नियंत्रण में कर लेता। उसकी चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे और वह मेरा विषय भी नहीं है
सावधानियाँ : त्राटक क्रिया के साधक को जल नेति करनी चाहिये। क्योकि त्राटक क्रिया करते हुए आँखों में जलन सी ,माथे में गर्मी सी महसूस होने लगती है। जल नेति से वह दूर हो जाती है।
गुरु के निर्देशन में करते हुए अपने सभी अनुभव उन्हें बताते रहे।
बहुत तेजी से अभ्यास न करे ,धीरे धीरे ही समय को बढ़ाये।
दिन में ठन्डे पानी से आँखों को पानी से धो ले।
अगर कभी आँखों में कोई दिक्क़त महसूस हो तो गबराये नहीं एक दो दिन
हल्का अभ्यास करे। धीरे धीरे वह समस्या ठीक हो जाएगी।
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