13 Apr 2016

खेचरी मुद्रा

 खेचरी मुद्रा 
अब तक की गयी मुद्राओ में खेचरी मुद्रा सबसे मुश्किल मुद्रा है। किसी भी साधक को योग्य गुरु के मार्गदर्शन में ही इस मुद्रा को करना चाहिए।जिह्वा से संबन्धित यह मुद्रा बड़ी ही सेनसिटिव है। खेचरी मुद्रा- खे अर्थात शून्य में, और चरी अर्थात चरना या विचरण करना।किसका विचरण करना ? चित्त का।इस प्रकार खेचरी का अर्थ हुआ चित्त का शून्य में विचरण करना है।इस प्रकार जिह्वा द्वारा की गयी वह क्रिया जिसमे चित्त शून्य में विचरण करता है(चित्त का शून्य में विचरण करना ही आत्मज्ञान की स्थिति भी होती है)खेचरी मुद्रा कहलाती है।सभी मुद्राओ में यह मुद्रा अति महत्व की तथा अति गोपनीय रखने की है।किसी अयोग्य व्यक्ति के सामने इसका वर्णन नहीं करना चाहिए।खेचरी मुद्रा का वर्णन हठयोग के सभी ग्रंथो में है।परन्तू स्वात्माराम ने इस मुद्रा का वर्णन विस्तार में किया है।
इस मुद्रा में जिह्वा की तीन क्रियाए छेदन, चालन और दोहन की जाती है।
विधि:-
"कपाल कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा। 
भुर्वान्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी।।" 
जीभ को उलटकर कपालगुहर में प्रविष्ट कराकर भूमध्य में दृष्टि को लगाने से खेचरी मुद्रा होती है।
नोट 1 :- कपालकुहर को व्योमचक्र भी कहते है।कपाल के ऊपर वह स्थान, जिस पर इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना का संगम होता है उसे ही कपालकुहर कहते है। इस कपालकुहर पर वह बिन्दु है जिस पर दोनों नाक, दोनों कान तथा मुख की नाड़िया है। इसलिए इसे पञ्च्स्त्रोत भी कहते है। कुछ साधको ने इसे सप्तस्त्रोत भी कहा है उनका मानना है की इसी बिन्दु पर दोनों आंखो की नाड़िया भी होती है।अब जिह्वा को कुपालकुहर तक कैसे पहुचाये सामान्यतः हजारो प्रयासो के बाद भी यह वहाँ तक नहीं पहुंचती है। इसके लिए अर्थात जिह्वा की लंबाई बढ़ाने के लिए योगियो ने निम्न निर्देश दिये है।
"छेदनचालनदोहै कलां क्रमेण वर्धयेत्तावत् । 
सा यावदभ्रूमध्यं स्पृशति तदा खेचरी सिद्धि ।।"
योगियो ने जिह्वा के छेदन, चालान तथा दोहन के लिए कहा है।अर्थात जीभ को काटना, चालान करना तथा दोहन करना,तब तक इन क्रियाओ को करना चाहिए जब तक की जिह्वा भ्रूमध्य को स्पर्श न कर ले।अब ये तीनों क्रियाए किस प्रकार करनी चाहिए उसके लिए कहा है
"स्नुहिपत्रनिभं शस्त्रं सुतीक्ष्ण स्निग्धनिर्मलं । 
समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत ।।"
थूअर (स्नुही) के पत्ते के समान तीक्षण धार वाला, स्निग्ध,शुद्ध शस्त्र लेकर उसके द्वारा जिह्वा मूल का बालभर छेदन करे(काँटे)
जिह्वा मूल को काट कर फिर क्या करना है। उस संबंध में कहा है।–
"ततः सैन्धवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रघर्षयेत । 
पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोममात्रं समुच्छिनेत।।" 
जिह्वा को नीचे की तरफ से बाल बराबर काटने के बाद सेंधा नमक तथा हरड के चूर्ण से उसका घर्षण करे।सात दिन के बाद पुनः बाल भर काटे।
नोट ;- आजकल छेदन के लिए तो ब्लेड का उपयोग किया जाता है। छेदन करने के बाद जीभ के अग्र भाग को चलाते है उसे चारो तरफ अधिकतम घूमते है उसके बाद दोहन किया जाता है अर्थात जीभ को आगे की तरफ खीचते है। खिचने की यह क्रिया किस प्रकार हो उसके लिए योगियो ने दो विधियाँ बताई है। प्रथम विधि में दोनों हाथो के अंगूठों व तर्जनी उँगलियो से जीभ को पकड़ कर दूध निकलती हुई गायें के थन की तरह खिचते है।
द्वितीय विधि में जीभ के आकार की लोहे की एक जीभ लेते है जिसकी सहायता से जीभ को खिचते है। ऐसा करते समय जिह्वा पर मक्खन का प्रयोग करते है। 
यहाँ एक प्रश्न और उठता है की कितने दिनो तक काटना और चालन व दोहन करना है?
 छ: मास तक। छः माह के अभ्यास से जिह्वा के मूल का शीत पूर्णत: हट जाता है।
नोट : यहाँ इस बात का ध्यान रखे की जिह्वा काटन सात दिन में एक बार होता है। परंतु चालन व दोहन प्रतिदिन करना है छः माह में जिह्वा की लंबाई इतनी हो जाती है की भ्रूमध्य तक पहुँच जाती है।

यह मुद्रा विशेषतः योगियो के लिए है।आम साधको को इस मुद्रा का अभ्यास नहीं करना चाहिए।क्योंकि जिह्वा के पूर्ण काटन के बाद साधक को बातचीत करने में बहुत दिक्कत होती है, उसका उच्चारण पूर्णत: ही बादल जाता है।प्रयास के बाद भी उच्चारण ठीक नहीं पाता है। 
लाभ:
खेचरी मुद्रा के संबंध में पूर्ण रूप से कहा जाता है कि जो इस मुद्रा के लाभ हैं वह अन्य किसी भी मुद्रा के द्वारा प्राप्त नहीं किये जा सकते हैं। इस मुद्रा की मुख्य विशेषता यही है कि यह सीधे आपको ध्यान की अवस्था में ले जायेगी। या फिर योगियों कि भाषा का प्रयोग करु तो समाधि की अवस्था में ले जायेगी । 
(क्योंकि समाज के लिए ध्यान और समाधि में कोई अंतर नहीं होता है)
हठयोगप्रदीपिका में स्वात्माराम जी ने बड़े ही विस्तार से इस मुद्रा के लाभो का वर्णन किया गया है । शायद ही किसी दूसरी मुद्रा पर उन्होंने इतना अधिक बल दिया है ।
खेचरी मुद्रा के तीनो स्तर पर लाभ प्राप्त होते हैं ।अर्थात खेचरी मुद्रा से शारीरिक,मानसिक तथा अध्यात्मिक स्तर पर लाभ प्राप्त होते हैं ।जिनका वर्णन निम्न प्रकार है।
शारीरिक लाभ: - 
 "रसनामूर्ध्वगां कृत्वा क्षणार्धमपि । 
विषैर्विमुच्यते योगी व्याधिमृत्युजरादिभिः।।
न रोगों मरणं तन्द्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा। 
न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।।" 
अगर कोई साधक क्षणमात्र ही जीभ को उपर लगाकर रख ले तो वह विष, रोग, अकाल मृत्यु तथा बुढ़ापा से मुक्त हो जाता  है।
खेचरी मुद्रा को सिद्ध करने वाला साधक को रोग, मरण, तन्द्रा, निद्रा, भूख, प्यास, मूर्छा आदि नहीं सताती है। 
"चुंबन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वारसस्यन्दिनि । 
सक्षारा कटूकाम्लदुग्धसदृशी मध्वाजयतुल्या तथा। 
व्याधिनां हरणं जरान्तकरणं शस्त्रागमोदीरणं ।।" 
 जिहवा पर ​​कपालकुहर को स्पर्श करके रखने से  कपालकुहर के निकलने वाले स्राव से वह क्रमशः नमकीन, तीखा, खट्टा अथवा दूध, शहद या घी के समान स्वाद का अनुभव करती है। ऐसे साधक के सभी रोग व बुढ़ापे का अन्त हो जाता है।उस पर शस्त्र प्रहार का प्रभाव नहीं होता है 
"नित्यं सोमकलापूर्ण शरीरं यस्य योगिनः। 
तक्षकेणापि दृष्टस्य विषं तस्य न सर्पति ।।"  
जो  साधक अपने सोमरस का भक्षण नाभि में स्थित  सूर्य को नहीं करने देता है। अर्थात जो सोमरस से भरा रहता है। उस पर तक्षक जैसे सबसे अधिक विषैले सर्प का भी विष नहीं चढ़ता है। 
स्पष्ट होता है की शरीर के स्तर पर ही यह मुद्रा पंच तत्व से बने,क्षरण होने वाले शरीर को दिव्य शरीर में परिवर्तित कर देती है। क्योंकि सब प्रकार से होने वाले शरीर के पतन इस मुद्रा के अभ्यास से रुक जाते हैं । शरीर के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। कोई भी रोग साधक को नहीं होता और अगर पहले से था तो वह  भी ठीक हो जाताहैं।अतः इस प्रकार कहा जा सकता है की खेचरी मुद्रा से होने वाले शारीरिक लाभ भी अध्यात्मिक स्तर के ही होते हैं।
मानसिक लाभ :
"खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोध्र्वतः।
न तस्य क्षरते बिन्दुः कामिन्याश्लेलेषितस्य च ।।" 
खेचरी मुद्रा के साधक द्वारा जब कपालकुहर को बंद कर दिया जाता है तब सुन्दर स्त्री के आलिंगन में जाने के बाद भी उसका बिंदु (आज्ञाचक्र का स्राव) स्खलित नहीं होता है।
उसके बाद कहा है की अगर स्खलित हो भी जाये तो वह क्या कर सकता है। 
"चलितो अपि यदा बिन्दुः सम्प्राप्तो योनिमण्डलम्। 
व्रजत्युध्र्व हृतःशक्त्या निबद्धो योनिमुद्रया।। "
अगर साधक का बिंदु स्खलित होकर योनिमण्डल तक पहुंच भी जाये तो भी योनिमुद्रा की प्रक्रिया से रोके गये बिंदु को साधक बलपूर्वक खींचकर उपर की और वापस ले जाता है। 
"चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे गता। 
तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धैर्निरूपिता।।" 
जब जिह्वा कपालकुहर में प्रविष्ट रहती है तो चित्त आलंबन रहित हो जाता है। तथा शून्य में प्रवेश कर जाता है।अतः यह खेचरी मुद्रा तत्व ज्ञान भी कराती है। 
ऐसा  अनुभव होता है कि खेचरी मुद्रा के लाभ जो मानसिक स्तर पर प्राप्त होते हैं वह सूक्ष्म  भी है,और अध्यात्मिक भी ,यह तो हम कह ही नहीं सकते की ये लाभ केवल मानसिक स्तर पर ही है,ये लाभ तो बहुत आगे के स्तर के हैं जिन्हे अध्यात्मिक स्तर के लाभ ही कहना होगा।
जरा सोचिये हमारा विज्ञान किस स्तर पर पहुच चुका था आज की रिसर्च में वैज्ञानिक कह रहे हैं की सेक्स मानसिक क्रिया है न की शारीरिक क्रिया है। हमारे योगियों ने पहले ही बता दिया था की आज्ञाचक्र से पहले एक हार्मोन्स स्रावित होता है जो आपके धातु के स्खलन का कारण है। अगर हम इस बिन्दु या इस हार्मोन्स को बहने से रोक दे तो धातु का स्खलन भी रुक जाता है। अब देखिये योगियों को नाड़ियो का कितना सूक्ष्म ज्ञान हो चुका था कि,कहा  गया है,अगर साधक के आज्ञाचक्र से बिन्दु स्रवित हो गया जिससे आपका धातु उपस्थ की इन्द्रियों तक पहुंच गया तो भी साधक नाड़ियो पर अपनी नियंत्रण शक्ति के द्वारा उस बिंदु को वापिस आज्ञाचक्र में ले आता है जिससे धातु का स्खलन भी नहीं होता है।
अध्यात्मिक लाभ :- खेचरी मुद्रा का वास्तविक तथ्य है की इस मुद्रा के सभी लाभ अध्यात्मिक ही है।कोई भी लाभ ऐसा नहीं है,जो अध्यात्मिक स्तर पर लाभ ना देता हो। वर्णात्मक क्रम में लिखने के लिए खेचरी मुद्रा के आध्यात्मिक लाभ निम्न प्रकार है।
"उर्ध्व जिह्वः स्थिरो भूत्वा सोमपानं करोति यः। 

मासार्धेन न सन्देहो मृत्युं जयति योगवित ।।" 
                                                      (नोट:विश्लेषण नोट 1 में देखे)
जो साधक स्थिर रहकर जिहवा को ऊपर कपालकुहर में लगाकर सोमपान करता है। वह आधे माह में ही मृत्यु को जीत लेता है।
"इन्धनानि यथा वहिनस्तैलवर्ति च दीपकः। 

तथा सोमकलापूर्ण देहि देहं न मुच्चति ।।"
                                                     (नोट:विश्लेषण नोट 2,3,4 में देखे)
जिस प्रकार लकड़ी रहने से अग्नि तथा तेल और बाती रहने से दीपक नहीं बुझता है। उसी प्रकार सोमरस से पूर्ण साधक के शरीर को आत्मा भी नहीं छोडती है
 "जिह्वाप्रवेशसम्भूतवहिननोत्पादितः खलु । 
                           चन्द्रात् स्रवति यः सारः सा स्यादमरवारुणी।।"             
                                                     (नोट:विश्लेषण नोट 2,3,4 में देखे)
जिहवा प्रवेश से उत्पन्न उष्णता के कारण चन्द्र (अर्थात आज्ञाचक्र) से जो सार या सोम स्रवित होता है।वही अमरवारुणी कहलाता है।
  "तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धाङ्गनाकर्षणम्।। "
                                                                      (नोट:विश्लेषण नोट 2,3,4 में देखे)
यह खेचरी मुद्रा अष्टसिद्धियो को देने वाली है,तथा सिद्धाङ्गनाऐ भी उसके प्रति आकर्षित होती है।
"उर्ध्वः षोडशपत्रमध्यगलितं प्राणदवाप्तं हठात 
                                    उर्ध्वास्यो रसनां नियम्य विवरे शक्तिं परां चिन्तयन्।                "उत्कल्लोलकलाजलं च विमलं धारामयं यः पिबते 
निर्व्याधिः सः मृणालकोमलवपुर्योगी चिरं जीवति।। "   
जिहवा को कपालकुहर में प्रविष्ट कराकर मुख को ऊपर करके पराशक्ति का ध्यान करते हुए षोडशदल-कमल से प्रवाहित प्राण के सहारे अनायास प्राप्त निर्मल धारारूप तरंग के समान सोमस्राव का जो पान करता है,वह कमलतंतु के समान कोमल शरीर वाला योगी व्याधि से मुक्त होकर चीरकाल तक जीवित रहता है।
                                                            (नोट विश्लेषण 5 – देखे)
"यत्प्रालेयं प्रहितसुषिरं मेरुमूर्धान्तरस्थम् 
तस्मिस्तत्वं प्रवदति सुधिस्तन्मुखं निम्नगानाम्
चन्द्रात् सारः स्रवति वपशस्तेन मृत्युर्नराणाम्
तद्बाध्नीयात् सुकरणमथो नान्याथा कार्यसिद्धिः।। "
मेरुदंड और मस्तक के बीच में जो सोमकलापूर्ण विवर है।वही (गंगा आदि) नदियो(के नाम से अभिहित इडा पिंगला आदि) का मुख कहा जाता है। तथा उसे ही विद्वान लोग आत्मतत्व कहते है। शरीर में उपस्थित सोममण्डल से निकले हुए स्राव का क्षरण ही मनुष्यो की मृत्यु का कारण है। अतएव उस स्राव का निरोध करने के लिए खेचरी मुद्रा लाभदायक साधन है।किसी दूसरे उपाय से यह कार्य सिद्धि नहीं हो सकती है।
                                                               (नोट विश्लेषण 6 देखे)
"सुषीरं ज्ञानजनकं पञ्चस्रोतः समन्वयतम् । 
तिष्ठतेे खेचरी मुद्रा तस्मिन् शून्ये निरञ्जने ।।" 
पांचों स्रोतों से युक्त जो विवर है।वही ज्ञान का उत्पादक है।उसी अज्ञानरहित शून्य में खेचरी मुद्रा विद्यमान रहती है।
                                                             (नोट विश्लेषण 7 देखे)
"एकं सृष्टिमयं बीजमेका मुद्रा च खेचरी । 
एको देवो निरालम्ब एकावस्था मनोन्मनी ।।"  
सृष्टि का मूल बीज एक प्रणव ही है।मुद्रा में एक खेचरी ही मुद्रा है।निरालम्ब ही एक परमात्मा है। और मनोन्मनी अवस्था ही एकमात्र अवस्था है।
                                                               (नोट विश्लेषण 8 देखे)
विशलेषण:-
नोट 1- कहने का अर्थ है,की आधे महीने तक एक स्थान पर ही रहना है। व्रजासन मे बैठ कर अगर साधक खेचरी मुद्रा (कपालकुहर या विवर जहां पर पाँच नाड़ियो का स्त्रोत है।जिसे पञ्च्स्त्रोत भी कहते है।उस पर जिहवा को लगाकर रखता है।) का अभ्यास करता है,तो उसे दो प्रकार से दिव्य लाभ प्राप्त होते है। प्रथम लाभ के रूप में पंचतत्व से बना यह विकार वाला शरीर देवताओ के दिव्य शरीर के समतुल्य हो जाता है।उसके सभी रोग नष्ट हो जाते है,और शरीर का क्षरण होना भी बंद हो जाता है। शरीर का अंत नहीं होता मृत्यु नहीं आती है।
दूसरे दिव्य लाभ के रूप में उसकी जो जन्म जन्म से स्वभाव की,कर्म की अनेक गाँठे,जिनसे वो बंधा है वो खुल जाती है।व्यक्ति को उस आत्मतत्व का उस परमतत्व का ज्ञान हो जाता है। जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती है।
नोट2,3,4- जब पूर्व जनित कर्मो के सारे बंधन सारी गाँठे खुल जाती है।तब वह शरीर को जब चाहे बदलता है। क्योंकि वह अपने मूल स्वरूप में अवस्थित होता है। उस आत्मा के रूप में स्थित होता है।उसे आत्म दर्शन हो जाते है आत्मज्ञान हो जाता है। 
और अपनी आत्मा के दर्शन कब होते है? 
जब वह अपने आज्ञाचक्र से बहने वाले सोमरस को बहने से रोक लेता है।यह सोमरस ही सभी प्रकार से अमरवारुणी है।अर्थात अमरता को देने वाला है।
इस सोमरस से जब साधक को तत्व ज्ञान हो जाता है तो 
(विज्ञान की भाषा में सृष्टि के सभी सूक्ष्म,स्थूल,चर,अचर,जड़ और चेतन के सूक्ष्म से सूक्ष्म घटको का ज्ञान होना ही तत्व ज्ञान है। वह समझ जाता है की किस एक घटक की किन अवस्थाओ में किसी दूसरे घटक से किन अवस्थाओ मैं क्रिया कराकर दिव्य वस्तुए (फिर सामान्य जैसे सोना चांदी का स्तर क्या है।) प्राप्त होगी)
उसे अणिमा,गरिमा,महिमा,लघिमा, प्राप्ति,प्राकाम्य,ईशित्व तथा वशित्व जैसी आठ सिद्धियां तो साधक को सुलभ ही प्राप्त हो जाती है।
प्राप्त होने वाली ये सिद्धियां क्या है इसका वर्णन निम्न प्रकार है।
अणिमा – साधक का अपने शरीर सूक्ष्म हो जाना। 
गरिमा – अपने शरीर का बहुत भारी हो जाना है।
महिमा – शरीर का बहुत बड़ा हो जाना।          
लघिमा – शरीर का बहुत हल्का हो जाना।       
प्राप्ति – साधक का बिना किसी अन्य साधन के तत्काल सभी जगह पहुँच जाना
प्राकाम्य – सभी इच्छाओ की पूर्ति की योग्यता होना
ईशित्व – एश्वर्यशाली होना
वशित्व – सभी चीज़ों को वश में करने की क्षमता आ जाना।
नोट 5 :जब कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है तो मूलाधार से सहस्रार तक कुछ अलौकिक देदीप्यमान सा उपर की तरफ उठता हुआ अनुभव देता है। इस शक्ति को ही पराशक्ति कहा गया है। या इसे ही कुण्डलिनी शक्ति कहते है। जो जागृत होने पर उपर की तरफ चलती हुई अनुभव होती है। 
विशुद्धि चक्र में सोलह दल होते है। योग में इसे सोलह पंखुड़ियों वाला कमल कहते है।
तात्पर्य यह है की जब साधक जिह्वा को विवर पर लगाकर ऊपर उठती हुई उस पराशक्ति का ध्यान करते हुए अनायस ही विवर से बहने वाले सोम रस का पान इस प्रकार करने लगता है जैसे विशुद्धि चक्र के सोलह पंखुड़ियों वाले कमल से  प्राण अनायास बहता है (क्योकि प्राण शरीर में बिना किसी प्रयत्न के बहते है उसके लिए कोई प्रयास नहीं करता पड़ता है। वह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है इसी प्रकार जब साधक उस सोम रस को भी अनायास ही बिना किसी प्रयास के पिने लगता तब )तो वह सभी व्याधियों से मुक्त होकर चिरकाल तक जीवित रहता है। अर्थात अमर हो जाता है। 
नोट 6:तात्पर्य यह है की पंचस्रोत ,पंचनाडियो के स्रोत वाला वह स्थान है जहां दोनों नाक,दोनों कान तथा मुख की नाड़िया एक साथ मिलती है। यह स्थान इड़ा,पिंगला तथा सुषुम्ना का भी मिलन स्थान है। अर्थात वही पर ये तीनो नाड़ियाँ मिलती है। 
उसी स्थान पर जिह्वा लगाकर ध्यान करने से दो मुख्य कार्य होते है। प्रथम कार्य तो साधक दिव्य सोमरस के स्राव को बहने से रोक देता है। जिससे साधक के शरीर का क्षरण बंद हो जाता है। और उसे चिरकाल जीवन की प्राप्ति होती है। 
द्वितीय लाभ में साधक का उस स्थान पर ध्यान लगाने से उसे आत्मतत्व का भी बोध होता है।और आत्म तत्व का बोध होने के बाद कुछ भी जानने के लिए,कुछ भी करने के लिए शेष नहीं रहता।  
नोट 7: पंच स्रोत दो नाक,दो कान व मुख की नाड़ियो का उत्पत्ति स्थान है जिसे योगियों ने कपालकुहर,विवर और भी अनेक नामो से कहा है। जब साधक जिह्वा को उस विवर पर लगाकर सोम रस को रोककर अपने ध्यान को उसी स्थान पर लगाता है तो उस अवस्था में साधक धीरे धीरे शांत हो जाता है। चित्त की समस्त वृतियो का निरोध हो जाता है। और चित्त निर आलंबन हो जाता है।आश्रयरहित हो जाता है। अर्थात चित्त किसी वस्तु या माध्यम का सहारा लेकर जगत में या इन्द्रियगम्य कार्यो में नहीं विचरता है। वह एक शून्य की अवस्था में पहुँच जाता है। वहाँ पर उसे तत्व ज्ञान होता है। यह तत्व ज्ञान ही आत्म ज्ञान है और सभी ज्ञान का उत्पादक है। अर्थात आत्म ज्ञान से ही सभी ज्ञान की प्राप्ति होती है। 
नोट 8 : खेचरी मुद्रा की उपयोगिता का वर्णन करते हुए ही कहा गया है की एक प्रणव अर्थात ॐ से जिस प्रकार स्रष्टि की रचना हुई है,निरालम्बन अर्थात परमात्मा ही वह चरम सत्ता है जिसको वेदांत में ब्रह्म कहा गया है और मनोन्मनी अवस्था (कुण्डलिनी जागरण की अवस्था)ही एक अवस्था है।उसी प्रकार मुद्राओं में खेचरी ही एक मुद्रा है।
सावधानियाँ :
बहुत ही दबाव से निर्देश है की इस मुद्रा को योग्य गुरु के निर्देशन में ही करें।
अगर ऐसा नहीं करेंगे तो निश्चित है बहुत भारी हानि उठानी पड़ेगी।
आवाज का चला जाना इसका सबसे छोटा नुकसान है। अतः सलाह है की बिना गुरु के इसे करना ही मत।

















1 comment:

  1. Mere ko swatmaram ka likha huaa granth padhna hai kahaa se mangau kripya jankari de dhanywad

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