आसन
परिचय :भगवन शिव जिन्हे हठयोग का जनक कहा जाता है ने योग की शिक्षा इस पृथ्वी पर दी। यह योग लम्बे समय तक गुरु शिष्य परम्परा के अनुसार उपदेश रूप में गुरु द्वारा शिष्य को दिया जाता रहा। जब धीरे धीरे मनुष्य की चेतना का स्तर गिरने लगा तो ऋषियों को इसलिए इस विज्ञानं को संकलित करने की आवश्यकता महसूस हुई की कही यह विज्ञान विलुप्त न हो जाये। इस आवश्यकता को समझकर ही हमारे ऋषियों ने अनेक ग्रंथो की रचना की जिनमे योग के अंगो की संख्या भी भिन्न भिन्न बतलायी। गोरक्ष व अमृतनादोपनिषद् में योग के छः अंग बतलाये ,पतंजलि,मण्डलब्राह्मणोपनिषद् और शाण्डिल्योपनिषद ने आठ अंग बताये ,तेजोबिन्दुपनिषद् ने पंद्रह अंग बतलाये। हठयोग के दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हठयोगपरदीपिका में योग के चार व घेरण्ड संहिता में योग के सात अंग कहे है।
मह्रिषी पतंजलि द्वारा लिखा गया योग शूत्र योग का सबसे पुराना ग्रन्थ माना जाता है। योग शूत्र में योग के आठ अंग कहे गए है। जिस कारण इसे अष्टांग योग भी कहा जाता है। ये आठ अंग यम,नियम,आसान, प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि है पतंजलि का योग शूत्र पूर्णतःआध्यात्मिक व कुछ अंशो में मानसिक हैजिसका अध्ययन हम अलग से करेंगे। मह्रिषी पतंजलि ने आसान का स्थिरसुखमासनम इतना वर्णन किया है इससे अधिक योगशूत्र में आसन के लिये कुछ नहीं लिखा गया है। और न ही किसी आसन का वर्णन है। धीरे धीरे महसूस किया गया की व्यक्ति शारीरिक,मानसिक व्याधियों से धिरता जा रहा है इस समस्या के समाधान को ही हठयोगियों ने आसनो का विस्तार किया।
हठयोग प्रदीपिका की अपेक्षा घेरण्ड संहिता में आसन का अधिक विस्तार है। हठयोगप्रदीपिका में आसनो की संख्या १४ बतायी है तथा घेरण्ड सहिता में कहा गया है भगवान शिव ने चौरासी लाख योनियों की तरह ही चौरासी लाख आसान बताये है जिनमे चौरासी आसन सर्वश्रेष्ठ है इन चौरासी आसनो में से भी बत्तीस आसनो का वर्णन ही घेरण्ड संहिता में किया गया है और कहा गया है की ये बत्तीस आसन ही मृत्यु लोक में
कल्याणप्रद है
भगवान शिव ने शिव संहिता में चौरासी आसान ही प्रधान आसन बताये है और उन चौरासी आसन में से सिद्धासन,पद्मासन,उग्रासन,स्वस्तिकासन श्रेष्ट है। हठयोग प्रदीपिका में दिए गए १४ आसन कुक्कुटासन,स्वस्तिकासन,गोमुखासन,वीरासन,कूर्मासन,उत्तानकूर्मासन,धनुरासन,
मत्स्येन्द्रासन,पश्चिमोत्तानासन, मयूरासन,सिद्धासन,पद्मासन,सिंहासन,भद्रासन है।
और घेरण्ड सहिता में दिए गए ३२ आसन मुक्तासन,वज्रासन,मृतासन,गुप्तासन,मत्स्यासन,गोरक्षासन,उत्कटासन,संकटासन,उत्तानमण्डूकासन,
कुक्कुटासन,स्वस्तिकासन,गोमुखासन,वृक्षासन,मण्डूकासन,गरुड़ासन,वर्षासन,शलभासन,
मकरासन,उष्ट्रासन,वीरासन,कूर्मासन,उत्तानकूर्मासन,धनुरासन,मत्स्येन्द्रासन,पश्चिमोत्तानासन,
भुजंगासन,योगासन, मयूरासन,सिद्धासन,पद्मासन,सिंहासन,भद्रासन है।
आसन का उददेश्य : यह स्पष्ट है की आसन का उददेश्य भी योग का ही उद्देश्य
अर्थात समाधि तक पहुचना है
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है की आसन का अभ्यास करने से शरीर में स्थैर्य ,आरोग्य व लाघव आता है।
व्याख्या करने पर स्पष्ट होता है स्थैर्य -शारीरिक,मानसिक स्थिरता ,आरोग्यता -निरोगता और
लाघव -हल्कापन
अर्थात शरीर में शारीरिक,मानसिक स्थिरता आती है आरोग्यता अर्थात विकार रहित होता है दोष सम अवस्था में आते है और हल्कापन आता है।
ये तीनो चीजे समाधि के लिए आवश्यक तत्व है। स्थिरता होगी चंचलता नहीं होगी तो मनुष्य साधना के लिए बैठ सकता है निरोगता अर्थात शरीर में बीमारी नहीं होगी तो किसी प्रकार की पीड़ा भी नहीं होगी बैठने में आसानी रहेगी। हल्कापन होने से लम्बे समय तक एक अवस्था बिना किसी अकड़ाहट के बैठा जा सकता है। वर्तमान में आसन करने का एक मात्र उद्देश्य आरोग्यता प्राप्त करना है। शारीरिक मानसिक स्थिरता व लाघव पाने के लिए मनुष्य आसनो का अभ्यास नहीं कर रहा है उसका उद्देश्य तो विभिन्न प्रकार के विकार जो शरीर में इकठ्ठा हो गए है उन विकारो को दूर करना है।
इसी कारण आजकल आसन योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग हो गए है। कालान्तर में जो योग का निम्न अंग था वर्तमान में वह उच्च अंग हो गया है साधारणजन तो योग को समझते ही आसन से है ,वे आसन को ही पूर्ण योग समझते है।
उत्पत्ति : हमारे योगियों ने या यु कहु की हमारे वैज्ञानिको ने अनेक पशु पक्षी ,जानवरो के जीवन को ध्यान से देखा उनके बैठने का ढंग , ढंग,तथा उनकी विशेषता और उसके बाद स्वयं खुद लम्बे समय तक उसी ढंग में रहकर प्रयोग किया और देखा की क्या वह विशेषता मनुष्य में भी आ सकती है जैसे उन्होंने मोर की विशेषता को देखा की मोर में विष को भी पचाने की क्षमता है। मोर में कुछ भी खा ले आसानी से पचा लेता है। फिर उसके संरचना पर ध्यान दिया और उसके रहने के ढंग का बहुत गहराई से अध्ययन किया और देखा की मोर के दोनों पैर शरीर को दो हिस्सों में बराबर बाटकर रखते है फिर लम्बे समय खुद उसी प्रकार रहकर अभ्यास किया और देखा की क्या वह पचाने की क्षमता हमारे अंदर भी आती है अनुभव से उत्तर मिला की हाँ ,और इस प्रकार शायद मयूरासन की उत्पत्ति हुई। और लगभग अधिकतर आसनो पर ऋषियों ने ऐसे ही अनुसंधान किये होगे। और तब जाकर किसी पक्षी की शारीरिक क्षमता उस आसन में ली होगी किसी पक्षी की ध्यानात्मक शक्ति उस आसन में ली गयी होगी
सिद्धान्त :यद्धपि आसनो के विभिन्न प्रकार है परन्तु प्रत्येक आसन पर लगभग एक ही सिद्धान्त कार्य करता है प्रत्येक आस में ३ भाग होते है शारीरिक,मानसिक व प्राण ऊर्जा।
शरीर से वो विशेष प्रकार की आकृति बनती है ,प्राण को पूर्ण रूप से ग्रहण करते या निकालते है,और मानसिक रूप से उस अंग विशेष पर ध्यान लगते है या मानसिक रूप से सोचते है की अंग विशेष या शरीर का रोग दूर हो रहा है जब हम किसी आसन का अभ्यास करते है तो उस अवस्था में दो भागो में कार्य होता है प्रथम तो आसन की विशेष आकृति के कारण शरीर में तनाव आता है तनाव में सम्पूर्ण शरीर की व विशेष अंग की वजह से सक्रिय होती है और अपना कार्य करने लगती है।
दूसरा जो प्राण वायु हमने ग्रहण की हुई है वह भी उन नाड़ियो को ऊर्जा प्रदान करती है यह एक विशेष ध्यान देने वाली बात है की प्राणवायु सम्पूर्ण शरीर के छोटे छोटे भाग तक भी क्षण प्रतिक्षण जाती रहती है
और यह अकेले ही पुरे तंत्र में नहीं जाती है बल्कि अपने साथ सुद्ध रक्त को भी ले जाती है तथा अशुद्ध वायु के रूप में अशुद्ध रक्त को लेकर वापस आती रहती है यह प्राण वायु या प्राण ऊर्जा वैसे तो सम्पूर्ण शरीर के लिए प्रतिक्षण कार्य करती है परन्तु आसन में यह उस विशेष अंग की नसों नाड़ियो के लिए अति विशेष कार्य करती है जिस अंग के लिए वह आसन किया गया है उस वक्त में प्राण ऊर्जा उस भाग या उस अंग की नाड़ियो को अतिरक्त विशेष ऊर्जा प्रदान करती है और अधिक सक्रियता के लिए बाध्य करती है
मत्स्येन्द्रासन,पश्चिमोत्तानासन, मयूरासन,सिद्धासन,पद्मासन,सिंहासन,भद्रासन है।
और घेरण्ड सहिता में दिए गए ३२ आसन मुक्तासन,वज्रासन,मृतासन,गुप्तासन,मत्स्यासन,गोरक्षासन,उत्कटासन,संकटासन,उत्तानमण्डूकासन,
कुक्कुटासन,स्वस्तिकासन,गोमुखासन,वृक्षासन,मण्डूकासन,गरुड़ासन,वर्षासन,शलभासन,
मकरासन,उष्ट्रासन,वीरासन,कूर्मासन,उत्तानकूर्मासन,धनुरासन,मत्स्येन्द्रासन,पश्चिमोत्तानासन,
भुजंगासन,योगासन, मयूरासन,सिद्धासन,पद्मासन,सिंहासन,भद्रासन है।
आसन का उददेश्य : यह स्पष्ट है की आसन का उददेश्य भी योग का ही उद्देश्य
अर्थात समाधि तक पहुचना है
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है की आसन का अभ्यास करने से शरीर में स्थैर्य ,आरोग्य व लाघव आता है।
व्याख्या करने पर स्पष्ट होता है स्थैर्य -शारीरिक,मानसिक स्थिरता ,आरोग्यता -निरोगता और
लाघव -हल्कापन
अर्थात शरीर में शारीरिक,मानसिक स्थिरता आती है आरोग्यता अर्थात विकार रहित होता है दोष सम अवस्था में आते है और हल्कापन आता है।
ये तीनो चीजे समाधि के लिए आवश्यक तत्व है। स्थिरता होगी चंचलता नहीं होगी तो मनुष्य साधना के लिए बैठ सकता है निरोगता अर्थात शरीर में बीमारी नहीं होगी तो किसी प्रकार की पीड़ा भी नहीं होगी बैठने में आसानी रहेगी। हल्कापन होने से लम्बे समय तक एक अवस्था बिना किसी अकड़ाहट के बैठा जा सकता है। वर्तमान में आसन करने का एक मात्र उद्देश्य आरोग्यता प्राप्त करना है। शारीरिक मानसिक स्थिरता व लाघव पाने के लिए मनुष्य आसनो का अभ्यास नहीं कर रहा है उसका उद्देश्य तो विभिन्न प्रकार के विकार जो शरीर में इकठ्ठा हो गए है उन विकारो को दूर करना है।
इसी कारण आजकल आसन योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग हो गए है। कालान्तर में जो योग का निम्न अंग था वर्तमान में वह उच्च अंग हो गया है साधारणजन तो योग को समझते ही आसन से है ,वे आसन को ही पूर्ण योग समझते है।
उत्पत्ति : हमारे योगियों ने या यु कहु की हमारे वैज्ञानिको ने अनेक पशु पक्षी ,जानवरो के जीवन को ध्यान से देखा उनके बैठने का ढंग , ढंग,तथा उनकी विशेषता और उसके बाद स्वयं खुद लम्बे समय तक उसी ढंग में रहकर प्रयोग किया और देखा की क्या वह विशेषता मनुष्य में भी आ सकती है जैसे उन्होंने मोर की विशेषता को देखा की मोर में विष को भी पचाने की क्षमता है। मोर में कुछ भी खा ले आसानी से पचा लेता है। फिर उसके संरचना पर ध्यान दिया और उसके रहने के ढंग का बहुत गहराई से अध्ययन किया और देखा की मोर के दोनों पैर शरीर को दो हिस्सों में बराबर बाटकर रखते है फिर लम्बे समय खुद उसी प्रकार रहकर अभ्यास किया और देखा की क्या वह पचाने की क्षमता हमारे अंदर भी आती है अनुभव से उत्तर मिला की हाँ ,और इस प्रकार शायद मयूरासन की उत्पत्ति हुई। और लगभग अधिकतर आसनो पर ऋषियों ने ऐसे ही अनुसंधान किये होगे। और तब जाकर किसी पक्षी की शारीरिक क्षमता उस आसन में ली होगी किसी पक्षी की ध्यानात्मक शक्ति उस आसन में ली गयी होगी
सिद्धान्त :यद्धपि आसनो के विभिन्न प्रकार है परन्तु प्रत्येक आसन पर लगभग एक ही सिद्धान्त कार्य करता है प्रत्येक आस में ३ भाग होते है शारीरिक,मानसिक व प्राण ऊर्जा।
शरीर से वो विशेष प्रकार की आकृति बनती है ,प्राण को पूर्ण रूप से ग्रहण करते या निकालते है,और मानसिक रूप से उस अंग विशेष पर ध्यान लगते है या मानसिक रूप से सोचते है की अंग विशेष या शरीर का रोग दूर हो रहा है जब हम किसी आसन का अभ्यास करते है तो उस अवस्था में दो भागो में कार्य होता है प्रथम तो आसन की विशेष आकृति के कारण शरीर में तनाव आता है तनाव में सम्पूर्ण शरीर की व विशेष अंग की वजह से सक्रिय होती है और अपना कार्य करने लगती है।
दूसरा जो प्राण वायु हमने ग्रहण की हुई है वह भी उन नाड़ियो को ऊर्जा प्रदान करती है यह एक विशेष ध्यान देने वाली बात है की प्राणवायु सम्पूर्ण शरीर के छोटे छोटे भाग तक भी क्षण प्रतिक्षण जाती रहती है
और यह अकेले ही पुरे तंत्र में नहीं जाती है बल्कि अपने साथ सुद्ध रक्त को भी ले जाती है तथा अशुद्ध वायु के रूप में अशुद्ध रक्त को लेकर वापस आती रहती है यह प्राण वायु या प्राण ऊर्जा वैसे तो सम्पूर्ण शरीर के लिए प्रतिक्षण कार्य करती है परन्तु आसन में यह उस विशेष अंग की नसों नाड़ियो के लिए अति विशेष कार्य करती है जिस अंग के लिए वह आसन किया गया है उस वक्त में प्राण ऊर्जा उस भाग या उस अंग की नाड़ियो को अतिरक्त विशेष ऊर्जा प्रदान करती है और अधिक सक्रियता के लिए बाध्य करती है
♥️♥️
ReplyDeleteधन्यवाद इस जानकारी के लिए।
इसी तरह सब भारतीय संस्कृति को जाने
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