श्री गुरु बाबा फकीरा दास जी के ब्रह्म मंत्र "सत् साहिब "की अर्थ सहित व्याख्या
कहा जाता है की वेद,उपनिषद तथा अन्य सभी वैदिक ग्रन्थों में कहे गए श्लोक सिद्ध मंत्रो के समान फलदायी है। अनन्त स्वरूप परमात्मा की तरह की तरह ही वे अनन्त स्वरूपों में परमात्मा का गुणगान करते है। सभी मन्त्र शब्दों की ऊर्जा के ऐसे संघनित समूह है ,जो प्रत्येक दशा में अपना प्रभाव डालते है।
आज मेरा उदेद्श्य न तो मंत्रो के इतिहास का वर्णन करना है और ना ही उनकी उर्जाओ का वर्णन करना है। आज के मेरे लेख का ध्येय ऐसे ही एक मंत्र की व्याख्या करना है। यह मन्त्र है सत् साहिब। मेरे गांव के प्रत्येक व्यक्ति की तरह यह मन्त्र मेरे जीवन का भी आधार है। बचपन से ही जब हम किसी भी देवी देवता के मन्दिर के सामने से निकलते थे तो सिर झुकाकर मन से निकलता था सत् साहिब। यह व्यवहार हमारे सम्पूर्ण गांव की दिनचर्या में शामिल है। परन्तु इस सत् साहिब का वास्तविक मूल अर्थ क्या है। कभी समझ नहीं आया। अनेक विचार आते परन्तु कोई भी वास्तविक ना लगता। लम्बे समय तक मै इसको समझ न सका,और जब गुरु बाबा फकीरा दास की कृपा दृष्टि हुई तो कुछ ही क्षणों में इसका अर्थ स्पष्ट हो गया। तब समझ आया की सत् साहिब मन्त्र ओउम् की ही पूर्ण व्याख्या करता है। यह ओउम् में कहे गए परमात्मा के तीनो रूप अकार,उकार,मकार और बाद में लगे हलंत का ही स्वरूप है।ओउम् के अकार, उकार,मकार परमात्मा के विराट रूप,हिरण्यगर्भ रूप,और कारण रूप का वर्णन करते है।
अब हम सत् साहिब का अर्थ समझने का प्रयास करते है। सत् कहते है सत्य को ,और साहिब फ़ारसी में मालिक को कहते है। मालिक अर्थात परमात्मा, परमेश्वर,भगवान।
इसका अर्थ हुआ की सत् ही मालिक है,सत्य ही परमात्मा है। अब हम सत् का अन्वेषण करे की सत् या सत्य का क्या स्वरूप है। क्या सत् का स्वरूप इतना ही है ,जितना प्रथम दृष्टया हम समझते है की -श्रोत ने जो सुना,चक्षु ने जो देखा तथा ह्रदय ने जो महसूस किया वाणी से वही कहना सत्य है। परन्तु इस महामन्त्र मे सत् का प्रयोग केवल इस अर्थ में शायद नही हुआ है। जिस अर्थ में सत् का प्रयोग हुआ है,उसको निम्न स्तरो पर समझने का प्रयास करते है।
प्रथम:स्थूल जगत के स्तर पर ,द्वितीय:सूक्ष्म जगत के स्तर पर और तृतीय:कारण जगत के स्तर पर।
तीनो बिन्दुओ को निम्न प्रकार समझते है ...
कारण जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण :ये जो सम्पूर्ण दृश्य है अर्थात प्राकृत आँखों से जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब स्थूल जगत कहलाता है।अब इस जगत में सत् का अन्वेषण करते है की -सत्य क्या है ? सत्य वही है जो दिखाई देता है। अर्थात मनुष्य,जीव जंतु,पशु पक्षी ,पेड़ पौधे सभी जड़ व चेतन सत् है। अर्थात माता पिता,भाई बंधू,मित्र व शत्रु सब सत् है।
इस प्रकार सत् साहिब अर्थात माता पिता,भाई बंधू,पशु पक्षी,जीव जंतु सभी,साहिब अर्थात मालिक अर्थात दाता अर्थात परमात्मा,परमेश्वर,भगवान् या ईश्वर है। कहने का अर्थ हुआ की इन सभी परमात्मा स्वरूप मानकर सभी के साथ श्रद्धा का व्यवहार करे, दया का व्यवहार करे, समानता का व्यवहार करे।
और यही भाव तो ओउम् के पहले अक्षर "अकार"का है। इसमें भी कहा गया है की वह परमेश्वर सबका नियन्ता सर्व व्यापक है ,विशालकाय है,स्थूल है,सर्वत्र है ,अर्थात वह आकाश है,पृथ्वी है,जल है,अग्नि है,वायु है,पशु है,पक्षी है,पेड़ है,पौधे है,जीव है,जंतु है,नर है,नारी है,भाई है,बंधू है,मित्र है,शत्रु है,माता है,पिता है,पुत्र है,पुत्री है। सब वही है।
श्रीमदभगवदगीता में भगवान् वासुदेव श्री कृष्ण ने कहा है। ........
"विद्याविनयसम्पने ब्राह्मणो गवि हस्तिनी।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।"
जो लोग विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में,गाय में,हाथी में,कुत्ते में और चांडाल में समान देखते है अर्थात मुझ वासुदेव श्री कृष्ण को ही देखता है वही ज्ञानी है।
"सम पश्यन्तु सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम।
न हिनस्त्यात्मनात्मनं ततो याति परां गतिम्।।"
जो पुरुष सब में सम भाव से स्थित परमेश्वर को देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता ,वह परम गति को प्राप्त होता है।
सूक्ष्म जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण: अब अगर हम थोड़ा सूक्ष्मता से ध्यान करे,सूक्ष्मता से सत् का अन्वेषण करे तो क्या ये स्थूल जगत वास्तव में सत् है,नहीं यहाँ की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। उसका अस्तित्व आज है कल नहीं है। फिर ये सत् कैसे हुआ?क्योकि सत् तो हमेशा एक जैसा ही रहता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता है। गहराई से,विवेक से चिंतन करने पर ज्ञात होता है की शरीर को चलाने वाली आत्मा है,जीवात्मा है।यह जो सभी के शरीर में स्थित आत्म तत्व है,जो शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता वही सबका मालिक है,साहिब है,ईश्वर है और वही सत् है। वह कभी दिखाई नहीं देता,अतिसूक्ष्म है,हिरण्यगर्भ है।और वही हिरण्यगर्भ सत् है। अब अगर ओउम् के उकार अक्षर की व्याख्या करे तो उकार का अर्थ है वः परमपिता,जो हिरण्यगर्भ है,सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है,वह एक परमाणु में भी समान रूप से विद्धमान है।वह सभी जड़ चेतन का मूल तत्व है।
"न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे।।"
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है,न मरता है,न उत्पन्न होकर फिर होने वाला है क्योकि यह अजन्मा,नित्य,सनातन,पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है।
फिर कहा है -
"अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।"
यह आत्मा अच्छेद्य है,अदाह्य है,अक्लेद्य और निसंदेह अशोष्य है। यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी अचल,स्थिर रहने वाला और सनातन है।
प्रथम:स्थूल जगत के स्तर पर ,द्वितीय:सूक्ष्म जगत के स्तर पर और तृतीय:कारण जगत के स्तर पर।
तीनो बिन्दुओ को निम्न प्रकार समझते है ...
कारण जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण :ये जो सम्पूर्ण दृश्य है अर्थात प्राकृत आँखों से जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब स्थूल जगत कहलाता है।अब इस जगत में सत् का अन्वेषण करते है की -सत्य क्या है ? सत्य वही है जो दिखाई देता है। अर्थात मनुष्य,जीव जंतु,पशु पक्षी ,पेड़ पौधे सभी जड़ व चेतन सत् है। अर्थात माता पिता,भाई बंधू,मित्र व शत्रु सब सत् है।
इस प्रकार सत् साहिब अर्थात माता पिता,भाई बंधू,पशु पक्षी,जीव जंतु सभी,साहिब अर्थात मालिक अर्थात दाता अर्थात परमात्मा,परमेश्वर,भगवान् या ईश्वर है। कहने का अर्थ हुआ की इन सभी परमात्मा स्वरूप मानकर सभी के साथ श्रद्धा का व्यवहार करे, दया का व्यवहार करे, समानता का व्यवहार करे।
और यही भाव तो ओउम् के पहले अक्षर "अकार"का है। इसमें भी कहा गया है की वह परमेश्वर सबका नियन्ता सर्व व्यापक है ,विशालकाय है,स्थूल है,सर्वत्र है ,अर्थात वह आकाश है,पृथ्वी है,जल है,अग्नि है,वायु है,पशु है,पक्षी है,पेड़ है,पौधे है,जीव है,जंतु है,नर है,नारी है,भाई है,बंधू है,मित्र है,शत्रु है,माता है,पिता है,पुत्र है,पुत्री है। सब वही है।
श्रीमदभगवदगीता में भगवान् वासुदेव श्री कृष्ण ने कहा है। ........
"विद्याविनयसम्पने ब्राह्मणो गवि हस्तिनी।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।"
जो लोग विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में,गाय में,हाथी में,कुत्ते में और चांडाल में समान देखते है अर्थात मुझ वासुदेव श्री कृष्ण को ही देखता है वही ज्ञानी है।
"सम पश्यन्तु सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम।
न हिनस्त्यात्मनात्मनं ततो याति परां गतिम्।।"
जो पुरुष सब में सम भाव से स्थित परमेश्वर को देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता ,वह परम गति को प्राप्त होता है।
सूक्ष्म जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण: अब अगर हम थोड़ा सूक्ष्मता से ध्यान करे,सूक्ष्मता से सत् का अन्वेषण करे तो क्या ये स्थूल जगत वास्तव में सत् है,नहीं यहाँ की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। उसका अस्तित्व आज है कल नहीं है। फिर ये सत् कैसे हुआ?क्योकि सत् तो हमेशा एक जैसा ही रहता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता है। गहराई से,विवेक से चिंतन करने पर ज्ञात होता है की शरीर को चलाने वाली आत्मा है,जीवात्मा है।यह जो सभी के शरीर में स्थित आत्म तत्व है,जो शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता वही सबका मालिक है,साहिब है,ईश्वर है और वही सत् है। वह कभी दिखाई नहीं देता,अतिसूक्ष्म है,हिरण्यगर्भ है।और वही हिरण्यगर्भ सत् है। अब अगर ओउम् के उकार अक्षर की व्याख्या करे तो उकार का अर्थ है वः परमपिता,जो हिरण्यगर्भ है,सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है,वह एक परमाणु में भी समान रूप से विद्धमान है।वह सभी जड़ चेतन का मूल तत्व है।
"न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे।।"
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है,न मरता है,न उत्पन्न होकर फिर होने वाला है क्योकि यह अजन्मा,नित्य,सनातन,पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है।
फिर कहा है -
"अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।"
यह आत्मा अच्छेद्य है,अदाह्य है,अक्लेद्य और निसंदेह अशोष्य है। यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी अचल,स्थिर रहने वाला और सनातन है।
कारण जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण: अब अगर और सूक्ष्मता से समझे और गहराई से सत् का पुनः अन्वेषण करे की क्या जीवात्मा ही अंतिम सत् है,उससे सत् कुछ नहीं है तो अनेक साधको के अनुभव है की जीवात्मा से परे भी जीवात्मा को चलाने वाली एक शक्ति है। इसी शक्ति के कारण समस्त सृष्टि की रचना हुई है। वही अंतिम परम् सत् है। वह अंतिम परम् सत् ही जो समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है ,ईश्वर है,परमात्मा है,मालिक है।ओउम् के मकार अक्षर का भी यही अर्थ है की इस सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण परमात्मा ही है।
इसी प्रकार सत् साहिब में सत् के त अक्षर में लगने वाले हलन्त (,)का वही अर्थ है जो ओउम् के अक्षर म के साथ लगने वाले हलन्त (,)का है,की इस सम्पूर्ण सृष्टि में अंदर बाहर,ऊपर निचे,सर्वत्र सब कुछ परमात्मा ही और सब कुछ उसका ही है उसके बाहर कुछ नहीं है।
इस प्रकार कह सकते है यह सत् साहिब मंत्र ओउम् की ही सम्पूर्ण व्यख्या करता है।
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