26 Oct 2015

Types of Pranayaam and its rules and benefits (प्राणायाम के प्रकार तथा उसके नियम व फल )

प्राणायाम के प्रकार तथा उसके नियम व फल 
(Types of Pranayaam and its rules and benefits)
प्राणायाम के द्वितीय चरण में हम कुम्भक के विभिन्न प्रकार का वर्णन करेंगे। हठयोगप्रदीपिका व घेरण्ड सहिंता दोनों ग्रंथो में कुम्भक (श्वांस को रोकना )के आठ प्रकार कहे गए है। 
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
" सूर्यभेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा। 
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा प्लाविनित्यष्ट कुम्भकाः।।"
सूर्यभेदन,उज्जायी,सीत्कारी,शीतली,भस्त्रिका,भ्रामरी,मूर्च्छा,प्लाविनी ये आठ प्रकार के कुम्भक है। 
घेरण्ड सहिंता में भी आठ प्रकार के कुम्भक का वर्णन है
"सहितः सुर्यभरदश्च उज्जायी शीतली तथा। 
भस्त्रिका भ्रामरी मूर्च्छा केवली चाष्ट कुम्भिका  "
सहित,सूर्यभेद,उज्जायी,शीतली,भस्त्रिका,भ्रामरी,मूर्च्छा,केवली ये आठ कुम्भक है। 
दोनों ग्रंथो में छः प्रकार के कुम्भक(सूर्यभेदन,उज्जायी,शीतली,भस्त्रिका,भ्रामरी,मूर्च्छा ) का वर्णन समान है तथा दो दो कुम्भक दोनों ग्रंथो में अलग अलग है। हठयोगप्रदीपिका में सीत्कारी तथा प्लाविनी और घेरण्ड सहिंता में सहित तथा केवली कुम्भक का वर्णन है।
एक ही प्रकार के कुम्भक के सम्बन्ध में दोनों ग्रंथो की विधियों में कुछ अंतर भी है। जिन पर हम यहाँ चर्चा करेंगे।
घेरण्ड सहिंता में दिए गए कुम्भक में बीज मंत्र का जाप पूरक रेचन के साथ जोड़ा गया है,जिससे आम साधक को वह अधिक जटिल लगता है।उन बीज मंत्रो का बड़ा महत्त्व होता है। उनमे बहुत ही उच्च स्तर की ऊर्जा होती है जो शरीर के विभिन्न हिस्सों में उनका जाप करने से उत्पन्न होती है।
प्राणायाम सम्बन्धी नियम :
प्राणायाम को करने के लिए तीनो बन्धो के सम्बन्ध में कुछ नियम है। जिनका पालन साधक को करना चाहिए। जैसे -
"पुरकान्ते तू कर्तव्यो बन्धो जालंधराभिधः। 
कुभकान्ते रेचकादौ कर्तव्यस्तुडिडयानकः।। "
पूरक (श्वांस  भरकर )के अंत में जालन्धर बन्ध (गर्दन को कंठ से मिलाना )लगाये और कुंभक (श्वांस को रोकना )के अंत में तथा रेचक(श्वांस निकालना )के आरम्भ में  उड्डयान बन्ध (उदर को अंदर खीचना )लगाये। 
"अधस्तातकुच्चनेनाशु कण्ठ संकोचने कृर्ते। 
मध्ये पश्चिमतानेन स्यात् प्राणो ब्रहानाडिगः।। "
जालन्धर बन्ध के बाद शीघ्रता से मूल बन्ध (गुदा का संकुचन )तथा उसके बाद उड्डयान बन्ध (पेट को पीछे की और दबाना)लगाने पर प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाता है। 
"अपानमूर्ध्वमुत्थाप्य प्राणं कण्ठादधो नयेत् । 
योगी जराविमुक्तः सन षोडशाब्दवया भवेत्।।"
अपान वायु को ऊपर उठाकर प्राण वायु को कण्ठ से निचे ले जाना चाहिए। दोनों को मिलाना चाहिए जिससे योगसाधक बुढ़ापे से मुक्त होकर सोलह वर्ष के युवक के समान हो जाता है। 
नोट : जो वायु नासाग्र से ग्रहण की जाती है उसे प्राण वायु कहते है तथा मूल बन्ध के द्वारा जो वायु ऊपर की तरफ जाती हैअर्थात जो वायु गुदा मार्ग की और से जाती है। उसे अपान वायु कहते है। यहाँ इस प्राण वायु तथा अपान वायु का एकीकरण करने को ,मिलाने को कहा है।
गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने भी प्राण को अपान में हवन करने को अर्थात मिलाने को कहा है।
लाभ :
प्राणायाम के फल के सम्बन्ध में कहा जा सकता है की इसके अभ्यास से सभी प्रकार के मलो की निवृत्ति हो जाती है।
ब्रह्मा आदि देवता भी मृत्यु के भय से प्राणायाम के अभ्यास में लगे रहते है।
इस प्रकार कहा जा सकता है की प्राणायाम अमरत्व को देने वाला है। मृत्यु नाम की कोई चीज साधक के मार्ग की बाधक नही रह जाती है। अर्थात एक सामान्य साधक की आयु भी प्राणायाम के अभ्यास से बढ़ जाती है। साधक का शरीर उसकी आयु से अधिक युवा लगता है।
"यावदबद्धो मरुद्देहे यावच्चित्तं निराकुलम्। 
यावद्दृष्टिर्भ्रवोर्मध्ये तावत् कालभयं कुतः।। "
जब तक शरीर में प्राण निरुध है तब तक चित्त शांत है। जब तक दृष्टि भ्रुमध्य में लगी है,तब तक मृत्यु का भय कैसा?
"विधिवत प्राणसंयामैर्नाडीचक्रे विशोधिते। 
सुषुम्ना वदनं भित्वा सुखाद्धिशति मारुतः।।"
विधिपूर्वक प्राणायाम के अभ्यास से नाड़ियो के भलीभांति निर्मल हो जाने पर प्राण सुषुम्ना नाड़ी के मुख का भेदन कर उसमे सुखपूर्वक प्रवेश कर जाता है। 
"मरुते मध्यसंचारे मनः स्थैर्यः प्रजायते। 
यो मनः सुस्थिरिभावः सैवावस्था मनोन्मनी।। "
प्राण का सुषुम्ना में प्रवेश होने पर मन में स्थिरता आती है। मन का भलीभांति स्थिर हो जाना ही मनोन्मनी अवस्था कहलाती है। ऐसी उन्मनी अवस्था की प्राप्ति के लिए साधक जन विभिन्न प्रकार के प्राणायाम (कुम्भक ) का अभ्यास करते है। 


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