सूर्यभेदन प्राणायाम
कुम्भक के भेद के आधार पर जिन प्राणायाम की संख्या आठ बतायी गयी है हठयोग के ग्रंथो में सूर्यभेदन का वर्णन सर्वप्रथम किया गया है। हठयोगप्रदीपिका व घेरण्ड सहिंता दोनों ग्रंथो में सूर्यभेदन का वर्णन है। यह सूर्यभेदन प्राणायाम शरीर में ऊर्जा उतपन्न करता है। जिन व्यक्तियों को आलस्य ,निद्रा अधिक रहती है उन्हें सूर्यभेदन का अभ्यास करना चाहिये क्योकि यह प्राणायाम शरीर में जोश,उत्साह भरता है। जिन लोगो को उच्च रक्त चाप की बीमारी है उन्हें यह प्राणायाम नहीं करना चाहिए।
विधि:
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
"आसने सुखदे योगी बद्ध्वा चैवासनं ततः।
दक्षनाडया समाकृष्य बहिस्थं पवनं शनेः।।
आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि कुम्भयेत्।
ततः शनेः सव्यनाडय रेचयेत् पवनं शनेः "
योगाभ्यासी कोई भी सुखदायक आसन बिछाकर उस पर आसन लगाकर दाहिने नथुने से बाहरी वायु को धीरे धीरे अंदर खींचकर उसे अधिकाधिक निरोध करे और फिर बाये नथुने से निकाल दे।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"पूरयेत् सूर्यनाड़िया च यथाशक्तिबहिर्मरुत।
धारयेद्धहु यत्नेन कुम्भकेन जलन्धरेः।
यावत्स्वेदं नखकेशाभ्यां तावत्कुर्वन्तु कुम्भकम्।। "
सर्वप्रथम जालन्धर बन्ध का अनुष्ठान करते हुए सूर्य नाड़ी अर्थात द्क्षिण नासाग्र से यथाशक्ति ब्रह्माण्ड में स्थित वायु को आकृष्ट करते हुए पूरक करने के पश्चात पूर्ण प्रयत्न से कुम्भक द्वारा उस पुरित वायु को तब तक धारण करे जब तक की नखो एवं केशो से स्वेद अर्थात पसीना न निकलने लगे।
"सर्वे ते सूर्यसम्भिन्ना नाभिमुलात् समुद्धरेत्।
इडया रेचयेत् पच्चाद धेर्यणाखण्डवेगतः।।
पुनः सूर्येण चाकृष्य कुम्भयित्वा यथाविधि।
रेचयित्वा साधयेत्तु क्रमेण च पुनः पुनः।।"
कुम्भक करने के समय प्राण आदि पांच वायु को पिग्ला नाड़ी द्वारा विखंडित करते हुए नाभि के मूलदेश में समान वायु को उत्तोलित करने के उपरान्त धैर्य के साथ धीरे धीरे वाम नासापुट द्वारा रेचन करने के पश्चात पुनः द्क्षिण नासापुट द्वारा वायु का पूरण करते हुए सुषुम्ना में कुम्भक करने के बाद पुनः वाम नासापुट से रेचन करना चाहिए। बार बार इसी क्रिया को करने का नाम ही सूर्यभेदन प्रणायाम है।
लाभ :
हठयोगप्रदीपिका में इसके फल के सम्बन्ध में कहा है की -
"कपालशोधनं वातदोषध्नं कृमिदोषहृत्।
पुनः पुनरिदं कार्य सूर्यभेदनमुत्तमम्।।"
यह सूर्यभेदन प्राणायाम मस्तक प्रदेश को शुद्ध करता है। वात सम्बन्धी रोग को नष्ट करता है ,उदर में उत्पन्न कृमि दोषो को दूर करता है।
लाभ के सम्बन्ध में घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"कुम्भकः सूर्यभेदस्तु जरा मृत्युविनाशकः।
बोधयेत्कुंडली शक्तिं देहलविवर्द्धनम्।
इति ते कथितं चण्ड सूर्यभेदनमुत्तमम्।।"
सूर्यभेद कुम्भक से जरा मृत्यु का नाश हो जाता है। साथ ही कुण्डलिनी शक्ति को प्रबोधित करने के अतिरिक्त यह शरीरस्थ अग्नि को भी बढ़ाता है।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करे।
उच्च रक्त चाप के रोगी हो तो यह अभ्यास न करे।
ह्रदय रोगी हो तो यह अभ्यास न करे।
मानसिक तनाव या मस्तिष्क में गर्मी हो तो यह अभ्यास न करे।
डिप्रेशन के मरीज हो तो यह कुम्भक न करे
उदर में गर्मी रहती हो तो यह अभ्यास न करे।
विधि:
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
"आसने सुखदे योगी बद्ध्वा चैवासनं ततः।
दक्षनाडया समाकृष्य बहिस्थं पवनं शनेः।।
आकेशादानखाग्राच्च निरोधावधि कुम्भयेत्।
ततः शनेः सव्यनाडय रेचयेत् पवनं शनेः "
योगाभ्यासी कोई भी सुखदायक आसन बिछाकर उस पर आसन लगाकर दाहिने नथुने से बाहरी वायु को धीरे धीरे अंदर खींचकर उसे अधिकाधिक निरोध करे और फिर बाये नथुने से निकाल दे।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"पूरयेत् सूर्यनाड़िया च यथाशक्तिबहिर्मरुत।
धारयेद्धहु यत्नेन कुम्भकेन जलन्धरेः।
यावत्स्वेदं नखकेशाभ्यां तावत्कुर्वन्तु कुम्भकम्।। "
सर्वप्रथम जालन्धर बन्ध का अनुष्ठान करते हुए सूर्य नाड़ी अर्थात द्क्षिण नासाग्र से यथाशक्ति ब्रह्माण्ड में स्थित वायु को आकृष्ट करते हुए पूरक करने के पश्चात पूर्ण प्रयत्न से कुम्भक द्वारा उस पुरित वायु को तब तक धारण करे जब तक की नखो एवं केशो से स्वेद अर्थात पसीना न निकलने लगे।
"सर्वे ते सूर्यसम्भिन्ना नाभिमुलात् समुद्धरेत्।
इडया रेचयेत् पच्चाद धेर्यणाखण्डवेगतः।।
पुनः सूर्येण चाकृष्य कुम्भयित्वा यथाविधि।
रेचयित्वा साधयेत्तु क्रमेण च पुनः पुनः।।"
कुम्भक करने के समय प्राण आदि पांच वायु को पिग्ला नाड़ी द्वारा विखंडित करते हुए नाभि के मूलदेश में समान वायु को उत्तोलित करने के उपरान्त धैर्य के साथ धीरे धीरे वाम नासापुट द्वारा रेचन करने के पश्चात पुनः द्क्षिण नासापुट द्वारा वायु का पूरण करते हुए सुषुम्ना में कुम्भक करने के बाद पुनः वाम नासापुट से रेचन करना चाहिए। बार बार इसी क्रिया को करने का नाम ही सूर्यभेदन प्रणायाम है।
लाभ :
हठयोगप्रदीपिका में इसके फल के सम्बन्ध में कहा है की -
"कपालशोधनं वातदोषध्नं कृमिदोषहृत्।
पुनः पुनरिदं कार्य सूर्यभेदनमुत्तमम्।।"
यह सूर्यभेदन प्राणायाम मस्तक प्रदेश को शुद्ध करता है। वात सम्बन्धी रोग को नष्ट करता है ,उदर में उत्पन्न कृमि दोषो को दूर करता है।
लाभ के सम्बन्ध में घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"कुम्भकः सूर्यभेदस्तु जरा मृत्युविनाशकः।
बोधयेत्कुंडली शक्तिं देहलविवर्द्धनम्।
इति ते कथितं चण्ड सूर्यभेदनमुत्तमम्।।"
सूर्यभेद कुम्भक से जरा मृत्यु का नाश हो जाता है। साथ ही कुण्डलिनी शक्ति को प्रबोधित करने के अतिरिक्त यह शरीरस्थ अग्नि को भी बढ़ाता है।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करे।
उच्च रक्त चाप के रोगी हो तो यह अभ्यास न करे।
ह्रदय रोगी हो तो यह अभ्यास न करे।
मानसिक तनाव या मस्तिष्क में गर्मी हो तो यह अभ्यास न करे।
डिप्रेशन के मरीज हो तो यह कुम्भक न करे
उदर में गर्मी रहती हो तो यह अभ्यास न करे।
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