7 Oct 2015

मत्स्येन्द्रासन Mtsyendrasan

मत्स्येन्द्रासन
इस आसन के बारे में कहा जाता है की इस आसन में गुरु गोरखनाथ जी के गुरूजी मत्स्येंद्रनाथ जी बैठकर ध्यान किया करते थे। उन्ही के नाम पर इस आसन का नाम मत्स्येंद्रासन पड़ा है। यह आसन एक ध्यानात्मक आसन है और शारीरिक रूप से भी बड़ा उपयोगी है। इसके महत्त्व को समझते हुए ही इसके लाभ का वर्णन भी हठयोगप्रदीपिका में किया गया है। घेरण्ड सहिंता में भी इस आसन का वर्णन है। परन्तु हठयोगप्रदीपिका व घेरण्ड सहिंता में वर्णित यह आसन भिन्न भिन्न है। हठयोगप्रदीपिका में वर्णित आसन ही साधारणतय प्रचलन में है जिसका वर्णन हम यहाँ करेंगे। 
विधिः 
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की
"वमोरुमुलार्पित दक्षपादं जानोर्बहिर्वेष्टितवामपादम्।
प्रगृहन तिष्ठेत् परिवर्तितताङ्गःश्री मत्स्यनाथोदितमासनं स्यात्।। "

दाहिने पाँव को बायीं जंघा के मूल में रखकर और बाये पाँव को दाहिने घुटने के बहार से घेरते हुए शरीर को ऐठकर मोड़कर विपरीत हाथो से दोनों पैरो को पकड़कर बैठना ही मत्स्येन्द्रासन है। एक पैर से करने के बाद इसी प्रकार दूसरे पैर से भी विपरीत कर्म से करते है। 
मत्स्येंद्रासन एक कठिन आसान है। वर्तमान में मत्स्येन्द्रासन की जगह अर्द्धमत्स्येन्द्रासन किया जाता है जिसे आम जन थोड़ा आसानी से कर लेते है। जिसकी विधि निम्न प्रकार है ---
इसमें दाहिने पाँव को जंघा के मूल में न रखकर बाये नितम्ब के निचे रखते है और शेष विधि उपरोक्त ही रहती है। इस प्रकार करने से यह आसान थोड़ा आसान हो जाता है। 
लाभ :
हठयोगप्रदीपिका में इस आसन के लाभ का वर्णन करते हुए लिखा है की 
"मत्स्येद्रपीठं जठरप्रदीप्तिं प्रचंडरुग्मंडलखंडनास्त्रम् । 
अभ्यासतः कुण्डलिनीप्रबोधं चंद्रस्थिरत्वं च ददाति पुंसाम् ।।"
इस आसन के अभ्यास से जठर अग्नि प्रदीप्त होती है। यह रोगो को नष्ट करने में अस्त्र के समान है।  इससे कुण्डलिनी जाग्रत होती है।तथा चन्द्रमण्डल स्थिर होता है। 
इतना ही वर्णन हठयोगपदीपिका में है। 
उपरोक्त तथ्यों का विश्लेषण करते है 
यह आसन जठर अग्नि प्रदीप्त करता है। जठर अग्नि के प्रदीप्त होने से कब्ज,अपच,मंदाग्नि दूर हो जाती है। लिवर ठीक से कार्य करता है जिससे पीलिया या अन्य लिवर सम्बन्धी रोग नहीं होते। अग्नाशय से इंसुलिन बनने लगता है जिससे ब्लड शुगर जैसा रोग नहीं होता है। पाचन क्रिया मजबूत हो जाती है। आंतो सम्बन्धी रोग भी नहीं होते है। सम्पूर्ण उदर सही से कार्य करता है जिससे अपान वायु सम्बंधित रोग भी नहीं होते है। अपान वायु ही शरीर में होने वाले दर्द,जोड़ो का दर्द,पेट का भारीपन,नाभि का डिगना,आदि अनेक बीमारियो का कारण है।
श्लोक में दूसरी बात कही है की यह रोगो को नष्ट करने में अस्त्र के समान है अर्थात यह आसन शरीर के समस्त रोगो को दूर कर देता है। 
तीसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह कहा गया है की इस आसन के अभ्यास से कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है।
और कुण्डलिनी के बारे में ही हठयोग में कहा गया है कि 
"उदघाटयेत कपाटं तू यथा कुचिकया हठात। 
कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत्।।"
जिस प्रकार चाबी से हठात दरवाजा खोलते है उसी प्रकार योगी कुण्डिलिनी के द्वारा मोक्ष का द्वार खोलते है। 
"येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रहास्थानं निरामयम्। 
मुखेनाच्छाद तद्द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी।।"
कुण्डलिनी उस मार्ग को मुख से ढककर सोई रहती है जिस मार्ग से क्लेशरहित ब्रह्मपद को पाया जाता है। 
"कन्दोधर्व कुण्डलिनीशक्तिः सुप्त मोक्षाय योगिनाम्। 
बंधने च मुढानां यस्तां वेत्ति स योगवित्।।"
 कन्द के उपर सोई कुण्डिलिनी योगियों को मोक्ष देती है। किन्तु मुर्ख लोगो के लिए यह बंधन का कारण बनती है। जो इस शक्ति को जनता है वही वास्तव में योग का जानकार है।
उपरोक्त व्याख्याओं से स्पष्ट है की कुण्डलिनी का क्या महत्त्व है।
उसी कुण्डलिनी को जागृत करने में यह आसन उपयोगी है। कुण्डलिनी के बारे में चर्चा किसी और लेख में किसी और दिन करेंगे। बस इतना कहना जरुरी है की कुन्डिलिनी जागरण के बाद व्यक्ति स्थिर हो जाता है,किसी वस्तु को प्राप्त करने की उसकी इच्छा नहीं रहती। वह शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण निरोग की अवस्था में पहुँच जाता है। यह अवस्था ही योग की पूर्ण अवस्था है। 
तीसरे फल के रूप में कहा गया है की चन्द्रमण्डल स्थिर होता है। 
यह चन्द्रमण्डल क्या है ??
शरीर में दो अलग अलग जगह पर विशेष नाड़ी होती है। जिन्हे चन्द्रमण्डल व सूर्यमण्डल कहते है। मुख में जिह्वा के मूल के ठीक ऊपर तालुमूल में चन्द्रमंडल स्थित होता है और नाभिमूल में सूर्यमण्डल स्थित होता है। योगियों ने बताया है की चन्द्रमंडल से अमृत का स्राव होता रहता है जो सूर्यमंडल की तरफ बहता है। सूर्य उस अमृत को सोखता रहता है।जिससे हमारे शरीर का,हमारे जीवन का लगतार ह्रास होता रहता है। चन्द्रमण्डल से गिरने वाला यह अमृत रस ही जीवन का सार है ,अमरत्व का कारण है। इस आसन के अभ्यास से चन्द्रमण्डल से सूर्यमण्डल की और बहने वाले इस अमृत रस का बहाव रूक जाता है। जिसे चन्द्रमण्डल का स्थिर होना कहते है।अमृत रस को रोकना आध्यात्मिक स्तर पर भी योगी की एक उच्च अवस्था है। अतः इसके शारीरिक व मानसिक स्तर पर क्या लाभ होगे विचार से ही यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा। 
अब अगर हम आज के स्तर पर इसके लाभ का वर्णन करे तो यह आसन पैरो के समस्त रोगो को,जंघा व घुटने के दर्द को दूर करता है। नितम्ब लचीले व होते है तथा उनकी व पेट की अतिरिक्त चर्बी दूर होती है। 
किडनी को लाभ मिलता है जिससे गुर्दे सम्बन्धी रोग नहीं होता है या ठीक हो जाता है। छाती चौड़ी होती है। फेफड़े सक्रिय होते है। कंधे व गर्दन की समस्त मासपेशियों को क्रियाशील करता है।दृष्टि को तेज करता है और नेत्र रोग को दूर करता है।
कमर व रीढ़ की हडी से सम्बंधित सभी विकार दूर हो जाते है। अनिद्रा,मानसिक अवसाद,तनाव तथा मस्तिस्क के अन्य रोग भी इस आसन के अभ्यास से ठीक होने लगते है। 
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करे।
हाथो में चोट लगी होया कोई अन्य समस्या हो  तो यह आसन न करे।
पैरो में,घुटनो में दर्द या चोट लगी हो तो आसन न करे।
पेट मे फोडा,फुन्सी,अल्सर या आपरेशन हुआ हो तो आसन न करे।
गर्दन दर्द,कमर दर्द हो या स्लिप डिस्क की समस्या हो तो आसन न करे।
नितम्बो में दर्द हो या कोई दिक्कत हो तो आसन न करे।
 सायटिका की  समस्या हो तो आसन न करे

वर्तमान में किया जाने वाला आसान 















मत्स्येन्द्रासन 






























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