सिद्धासन
हठयोग के ग्रंथो में सिद्धासन का सबसे अधिक विशेष आसन के रूप में वर्णन है। हठयोगप्रदीपिका व घेरण्ड सहिंता दोनों ग्रंथो में इस आसन का वर्णन है। वह आसन जो सिद्धियों की प्राप्ति कराता हो या जो आपको सिद्ध कर देता हो,सिद्धासन कहलाता है।
"चतुरशीत्यासनानि शिवेन कथितानि वै।
तेभ्यश्चतुष्कमादाय सारभूतं ब्रिविम्य्हम। "
विधिः
हठयोगप्रदीपिका में इस आसन की दो विधि कही गयी है।एक मत मत्स्येन्द्रनाथ जी का है और दूसरा मत अन्य सिद्धो का है।
पहले मत के अनुसार
"योनिस्थानकमङ्ध्रिमुलघटितं कृत्वा दृढं विन्यसेत्।
मेढ्रे पादमथैकमेव हदये कृत्वा हनुं सूस्थिरम्।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियो अचलदृशा पश्येद् भूर्वोरन्तरम्।
ह्नोतन्मोक्षकपाटं भेदजनकम सिद्धासनं प्रोच्यते।।"
एक पाँव की एड़ी को सीवनी में अच्छी तरह लगाकर दूसरे पाँव को शिश्न के उपर दृढ़ता से रखकर चिबुक को ह्रदय प्रदेश पर अच्छी तरह स्थापित कर इन्द्रियों को सयमित कर तथा भूमध्य दृष्टि होकर निश्चल रहना ही सिद्धासन है।
दूसरे मत के अनुसार -
"मेढ्रादुपरि विन्यस्य सव्यं गुल्फं तथोपरि।
गुल्फान्तरं च निक्षिप्य सिद्धासनमिदं भवेत्।।"
शिश्न के उपर बाये पाँव की एड़ी तथा उसके ऊपर दूसरे पाँव की एड़ी रखकर बैठना ही सिद्धासन है।
हठयोगप्रदीपिका में इस आसन को ही वज्रासन,मुक्तासन,गुप्तासन कहा गया है।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है
"योनिस्थानकमङ्ध्रिमुलघटितं सम्पीडय गुल्फेतरम।
मेढ्रे सम्प्रणिधाय एवं चिबुकं कृत्वा हदि प्यायिनम्।।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियोअचलदृशा पश्यन भूर्वोरंतरम्।
जितेन्द्रिय साधक द्वारा एक पैर की एड़ी से योनि परदेश को संपीड़ित कर दूसरे पैर की एड़ी को लिंग पर स्थापित कर चिबुक को ह्रदय के ऊपर अवस्थित कर स्थाणु सदृश होकर स्थिर एवं व्रकता रहित दोनों नयनो द्वारा भौहे के मध्य भाग का अवलोकन करना ही सिद्धासन है।
फल (लाभ ):
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
चतुरशीतिपीठेषु सिद्धमेव सदाभ्यसेत।
द्धासप्ततिसहस्त्राणां नाडीनां मलशोधनम्।।
मुख्य चौरासी आसनो में से केवल सिद्धासन का ही अभ्यास करना चाहिए।
यह शरीर की सभी 72000 नाड़ियो का मलशोधन करता है उनको शुद्ध करता है।
"आत्मध्यायी मिताहारी यावदद्धादशवत्सरम्।
सदा सिद्धासनाभ्याद्योगी निष्पत्तिमाप्नुयात्।।
कीमन्येर्बहुभिः पीठैः सिद्दे सिद्धासने सति।।"
जो योगी 12 वर्षो तक नियमित रूप से आत्मा का ध्यान करता है। मर्यादित (परिमित) भोजन करता है।और सिद्धासन का अभ्यास करता है। वह इनके द्वारा योग में निष्पत्ति अवस्था को प्राप्त करता है।जिसने सिद्धासन सिद्ध किया उसका अन्य आसनो से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है।
"तथैकस्मिन्नेव दृढे बद्धे सिद्धासने सदा।
बन्धत्रयमनयासात स्वयमेवोपजायते।।"
सिद्धासन के दृढ़ता पूर्वक सिद्ध कर लेने पर तीनो बांध अनायास ही लग जाते है।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"मोक्ष विधायते फलकरं सिद्धासनं प्रोच्यते।"
इस आसन के अभ्यास से साधक को मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है।
अन्य तन्त्रान्तरो में इसके फल का वर्णन करते हुए कहा गया है की -
"येनाभ्यासवशाच्छीघ्रं योगनिष्पतिमाप्नुयात्।
सिद्धासन सदा सेव्यं पवनाभ्यासिभिः परम्।।
येन संसार मृतसृज्य लभ्यते परमां गतिः।
नातः परतरं गुह्यमासनं विद्यते भुवि।।"
सिद्धासन का अभ्यास करने से अतिशीघ्र योगसिद्धि की प्राप्ति होती है जिससे योगी संसार से
मुक्त होकर परम गति को प्राप्त हो जाता है।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करे।
पैरो में दर्द या चोट लगी हो तो आसन न करे।
अंडकोष में दर्द या अन्य कोई समस्या हो तो यह आसन न करे
कमर दर्द हो या स्लिप डिस्क की समस्या हो तो आसन न करे।
नितम्बो में कोई दिक्क्त हो तो आसन न करे।
"चतुरशीत्यासनानि शिवेन कथितानि वै।
तेभ्यश्चतुष्कमादाय सारभूतं ब्रिविम्य्हम। "
भगवान शिव ने चौरासी आसनो का परिगणन किया है उनमे से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आसनो
का वर्णन निम्न है।
"सिद्धं,पद्म सिंह तथा भद्र चेती चतुष्टयम्।
श्रेष्ट तत्रापि च सूखे तिष्ठते सिद्धासने सदा।।"
सिद्ध,पद्म,सिंह तथा भद्र ये सारभूत आसन है उनमे भी श्रेष्ट सिद्धासन है। जिसका अभ्यास सर्वदा सुखपूर्वक करना चाहिए।विधिः
हठयोगप्रदीपिका में इस आसन की दो विधि कही गयी है।एक मत मत्स्येन्द्रनाथ जी का है और दूसरा मत अन्य सिद्धो का है।
पहले मत के अनुसार
"योनिस्थानकमङ्ध्रिमुलघटितं कृत्वा दृढं विन्यसेत्।
मेढ्रे पादमथैकमेव हदये कृत्वा हनुं सूस्थिरम्।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियो अचलदृशा पश्येद् भूर्वोरन्तरम्।
ह्नोतन्मोक्षकपाटं भेदजनकम सिद्धासनं प्रोच्यते।।"
एक पाँव की एड़ी को सीवनी में अच्छी तरह लगाकर दूसरे पाँव को शिश्न के उपर दृढ़ता से रखकर चिबुक को ह्रदय प्रदेश पर अच्छी तरह स्थापित कर इन्द्रियों को सयमित कर तथा भूमध्य दृष्टि होकर निश्चल रहना ही सिद्धासन है।
दूसरे मत के अनुसार -
"मेढ्रादुपरि विन्यस्य सव्यं गुल्फं तथोपरि।
गुल्फान्तरं च निक्षिप्य सिद्धासनमिदं भवेत्।।"
शिश्न के उपर बाये पाँव की एड़ी तथा उसके ऊपर दूसरे पाँव की एड़ी रखकर बैठना ही सिद्धासन है।
हठयोगप्रदीपिका में इस आसन को ही वज्रासन,मुक्तासन,गुप्तासन कहा गया है।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है
"योनिस्थानकमङ्ध्रिमुलघटितं सम्पीडय गुल्फेतरम।
मेढ्रे सम्प्रणिधाय एवं चिबुकं कृत्वा हदि प्यायिनम्।।
स्थाणुः संयमितेन्द्रियोअचलदृशा पश्यन भूर्वोरंतरम्।
जितेन्द्रिय साधक द्वारा एक पैर की एड़ी से योनि परदेश को संपीड़ित कर दूसरे पैर की एड़ी को लिंग पर स्थापित कर चिबुक को ह्रदय के ऊपर अवस्थित कर स्थाणु सदृश होकर स्थिर एवं व्रकता रहित दोनों नयनो द्वारा भौहे के मध्य भाग का अवलोकन करना ही सिद्धासन है।
फल (लाभ ):
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
चतुरशीतिपीठेषु सिद्धमेव सदाभ्यसेत।
द्धासप्ततिसहस्त्राणां नाडीनां मलशोधनम्।।
मुख्य चौरासी आसनो में से केवल सिद्धासन का ही अभ्यास करना चाहिए।
यह शरीर की सभी 72000 नाड़ियो का मलशोधन करता है उनको शुद्ध करता है।
"आत्मध्यायी मिताहारी यावदद्धादशवत्सरम्।
सदा सिद्धासनाभ्याद्योगी निष्पत्तिमाप्नुयात्।।
कीमन्येर्बहुभिः पीठैः सिद्दे सिद्धासने सति।।"
जो योगी 12 वर्षो तक नियमित रूप से आत्मा का ध्यान करता है। मर्यादित (परिमित) भोजन करता है।और सिद्धासन का अभ्यास करता है। वह इनके द्वारा योग में निष्पत्ति अवस्था को प्राप्त करता है।जिसने सिद्धासन सिद्ध किया उसका अन्य आसनो से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है।
"तथैकस्मिन्नेव दृढे बद्धे सिद्धासने सदा।
बन्धत्रयमनयासात स्वयमेवोपजायते।।"
सिद्धासन के दृढ़ता पूर्वक सिद्ध कर लेने पर तीनो बांध अनायास ही लग जाते है।
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"मोक्ष विधायते फलकरं सिद्धासनं प्रोच्यते।"
इस आसन के अभ्यास से साधक को मोक्ष रूप फल की प्राप्ति होती है।
अन्य तन्त्रान्तरो में इसके फल का वर्णन करते हुए कहा गया है की -
"येनाभ्यासवशाच्छीघ्रं योगनिष्पतिमाप्नुयात्।
सिद्धासन सदा सेव्यं पवनाभ्यासिभिः परम्।।
येन संसार मृतसृज्य लभ्यते परमां गतिः।
नातः परतरं गुह्यमासनं विद्यते भुवि।।"
सिद्धासन का अभ्यास करने से अतिशीघ्र योगसिद्धि की प्राप्ति होती है जिससे योगी संसार से
मुक्त होकर परम गति को प्राप्त हो जाता है।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करे।
पैरो में दर्द या चोट लगी हो तो आसन न करे।
अंडकोष में दर्द या अन्य कोई समस्या हो तो यह आसन न करे
कमर दर्द हो या स्लिप डिस्क की समस्या हो तो आसन न करे।
नितम्बो में कोई दिक्क्त हो तो आसन न करे।
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