13 Jun 2016

वज्रोली मुद्रा

वज्रोली मुद्रा 
वज्रोली मुद्रा भी अति महत्वपूर्ण मुद्रा है। हटयोग के ग्रंथो में इसकी उपयोगिता का वर्णन करते हुए ही कहा गया है, की अगर कोई साधक योगशास्त्र के नियमों का पालन न करते हुए जीवन यापन करता है, और वज्रोली मुद्रा का साधक है, तब भी वह योग में सफलता पा लेता है। यह मुद्रा स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है। 
यह मुद्रा भी साधारण योग साधको के लिए नहीं है, इस मुद्रा में भी खेचरी मुद्रा की तरह  ही आज्ञा चक्र से बहने वाले सोमरस के स्राव को रोक कर उसका पान किया जाता है।हठयोगप्रदीपिका में इसे व्रजोली तथा घेरण्डसंहिता में व्रजोणी  कहा गया है। तथा दोनों ग्रंथो में इनकी विधियां भी भिन्न भिन्न है। 
विधि :-
" मेहनेन  शनै  समयगुर्ध्वाकुंचनमभ्यसेत। 
पुरुषोप्यथवा नारी व्रजोलीसिद्धिमाप्नुयात।। "
धीरे-धीरे अच्छी तरह से योनिमण्डल का आकुञ्चन करने का प्रयास करना चाहिए ऐसा करने से स्त्री व पुरुष दोनों ही व्रजोली का फल प्राप्त कर लेते है।
              " यत्नत: शस्तनालेन फुत्कारं वज्रकन्दरे। 
शनैः शनैः प्रकुर्वीत वायुसञ्चारकारणात।।"
यत्नपूर्वक अच्छी नली से फुत्कार के साथ मूत्रमार्ग में वायु का प्रवेश कराये इस प्रकार धीरे-धीरे करने से भीतर वायु का संचार होगा।  
              " नारिभगे पतदबिन्दुमभ्यासेनोर्ध्व माहरेत। 
चलितं च निजं बिंदु मूर्ध्वमाकृष्य रक्षयेत्।।" 
योनिमंडल में आकर गिरने वाले बिंदु को अभ्यास के द्वारा ऊपर उठावे तथा उस चलायमान बिंदु को ऊपर ही खींच कर रखे। 
तात्पर्य यह है की तडागी मुद्रा में बैठकर मूलबन्ध तथा उड्डयन  बंध लगाकर योनि का आकुंच्चन करे। 
फिर मूत्रमार्ग में नली लगाकर मध्यम नौली  क्रिया द्वारा वायु का प्रवेश कराये जिससे की भीतर का समस्त कामोत्तेजक मल दूर हो जाये इसके साथ ही  बार-बार निचे गिरने वाले बिंदु को ऊपर ले जाने का प्रयास करे।  
शरीर में उपस्थित एक चित्रा नाड़ी होती है। यह नाड़ी सुषुम्ना नाड़ी के अंतिम निचे का भाग होती है। इस नाड़ी का स्थान उपस्थ व गुदा के बीच उपस्थित सीवनी प्रदेश है।अर्थात सीवनी के भाग मे ही यह चित्रा नाड़ी उपस्थित होती है।उस क्षेत्र के सभी प्रकार के नियंत्रण इस चित्रा नाड़ी से ही होते है।मूलबन्ध,उड्डयन बंध लगाकर योनिमण्डल का आकुच्चन इस चित्रा नाड़ी पर नियंत्रण करने के लिए ही किया जाता है, जब इस पर नियंत्रण  हो जाता है, तब सोममण्डल से गिरने वाले सोमरस को इस नाड़ी की सहायता से रोककर मूत्रमार्ग से वायु का प्रवेश कराकर ऊपर की तरफ वापस चढ़ाया जाता है। यह क्रिया ही व्रजोली क्रिया है। 
लाभ :- 
       "एव  संरक्षयेद् बिंदु मृत्युं जयति योगवित्। 
मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात।।"
सोमरस की रक्षा करने वाले योगी अकाल मृत्यु को जीत लेता है, क्योंकि बिंदु का क्षरण ही मृत्यु है और बिंदु की रक्षा ही जीवन है। 
                  "सुगन्धों  योगिनो देहे जायते बिंदु धारणात। 
यावद बिन्दुः स्थिरो देहे तावत काल भयं कुतः।। "
बिंदु को धारण करने वाले साधक के शरीर में सुगंध पैदा होती है।  जब तक शरीर में बिंदु है, मृत्यु का भय कैसा।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करें। 
योग्य गुरु के सानिध्य में करें। 
आम साधक इस मुद्रा का अभ्यास न करें। 
पहले मूल बन्ध,उड्डयन बन्ध तथा तड़ागी  मुद्रा को सिद्ध  कर ले। 


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