10 Jun 2016

विपरीतकरणी मुद्रा

विपरीतकरणी मुद्रा 
विपरीतकरणी मुद्रा एक प्रकार से सर्वांगासन और शीर्षासन ही है  इस मुद्रा से वे सभी लाभ मिलते है जो इन आसनो से मिलते है। हठयोगप्रदीपिका के अनुसार 
सौरमंडल से जो दिव्य रस रूप अमृत स्रावित होता है उसको नाभिस्थित  सूर्य खा जाता है। इसी कारण से बुढ़ापा आता है। उसके निवारण हेतु एक क्रिया की जाती है,जिसमे शरीर को विपरित क्रम में कर लेते है।जिससे की सूर्य के मुख में उस स्राव का जाना टल जाता है।
"उधर्वनाभिरधस्तालुृधर्व भानूरध शशी। 
करणी विपरीताख्या गुरुवाक्येंन लभ्यते।।
अधः शिरश्चोधर्वपादः क्षण स्यात् प्रथमे दिने। 
क्षणाच्च किश्चिदधिकमध्यसेच्च दिने दिने।। "
नाभि को उपर और तालु को निचे करने से सूर्यमण्डल उपर व चन्द्र मण्डल निचे चला जाता है। इसे ही विपरीतकरणी मुद्रा कहते है। 
प्रथम दिन में एक क्षण तक निचे की और मस्तक और उपर की ओर पाँव करके रहना चाहिए। उसके बाद क्षण से कुछ अधिक बढ़ाना चाहिए। 
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की 
"नाभिमूलेवसेत्सूर्यस्तालुमूले च चन्द्रमाः।
 अमृतं ग्रसते मृत्युस्ततो मृत्युवशो नरः॥
ऊर्ध्वं च जायते सूर्यश्चन्द्रं च अध आनयेत्। 
विपरीतकरीमुद्रा सर्वतन्त्रेषुगोपिता ॥
भूमौ शिरश्च संस्थाप्य करयुग्मा समाहितः।
 ऊर्ध्वपादः स्थिरोभूत्वा विपरीतकरीमता ॥"

  नाभि में सूर्य और तालु में चन्द्रनाड़ी का वास होता है उसी कारण सहस्त्रदल कमल से 
से पियूष धारा का जब क्षरण होता है  तो उस सुधा धारा को सूर्य अपना ग्रास बना लेता है,जिसके कारण स्वरूप मनुष्य की मृत्यु होती है इसके विपरीत यदि चन्द्र नाड़ी उस अमृत रस को अपना ग्रास बनाये तो मनुष कभी भी काल का भोग नहीं बनता है। इसलिए ही योगियों को योगबल से सूर्य व चन्द्र नाड़ी विपरीत क्रम में अर्थात सूर्य नाड़ी को उर्ध्व भाग में तथा चन्द्र नाड़ी को अधोभाग में स्थापित करना चाहिए।
सिर व कंधो को जमीन पर रखकर दोनों हाथो से भूमि का सहारा लेकर पैरो को आकाश में उपर उठाकर सीधे खड़ा कर स्थिर रहना ही विपरीत करणी मुद्रा कहलाती है 
लाभ :
"मुद्रेयं साध्येन्नित्यं जरां मृत्युच्च नाशयेत्। 
स सिद्धि सर्व लोकेषु प्रलये अपि न सीदति।।"
इस मुद्रा का अभ्यासी मृत्यु को पराजित करने में समर्थ हो अमर हो जाता है। ऐसे साधक सभी लोको में सिद्ध हो जाते है। और प्रलय काल में भी उनका नाश नहीं होता है।
शिव सहिंता में भी इस मुद्रा ये यही लाभ कहे गए है। 
कहा गया है है की जो साधक एक प्रहर तक इस मुद्रा का अभ्यास करता है वह योगी मृत्यु को जीत लेता है।
हठयोगप्रदीपिका में शरीर के स्तर पर भी इसके बहुत से लाभ कहे गए है जैसे -
"नित्यमभ्यासयुक्तस्य जठराग्निविवर्धिनी "
इस मुद्रा के प्रतिदिन अभ्यास से जठर अग्नि प्रदीप्त होती है।
"वलितं पलितं चैव षण्मासोर्ध्व न  दृश्येत। 
याममात्रं तु  यो नित्यमभ्यसेत स तू कालजित।।"
इसके अभ्यासी के छः माह में सभी सफेद बाल काले हो जाते है। चेहरे की झुर्री दूर हो जाती है। जो नियमित एक याम तक इसका अभ्यास करता है वह मृत्यु को जीत लेता है।
विश्लेषण :
सम्पूर्ण योगिक क्रियाएं एक ही बिंदु के इधर उधर घूमती है। सभी का मकसद भी एक ही है की शरीर की जो सूक्ष्म ऊर्जा है जो बहुत अधिक शक्तिशाली है जो बाहर की तरफ क्षरित हो रही है उसे शरीर में ही कैसे रोका जाए। खेचरी मुद्रा में उस ऊर्जा को जीभ द्वारा रोकने को कहा है,और विपरीत करणी में शरीर को उलटे क्रम में रखकर उस ऊर्जा को रोकने के लिए कहा गया है। इसके बारे में कहा गया है की तीन घंटे (एक प्रहर या एक याम) इसका अभ्यास करने से मृत्यु पर विजय प्राप्त हो जाती है।
इस मुद्रा से शरीर को और भी बहुत से लाभ होते है जैसे -
कब्ज को दूर करती है।
 अपच ,मन्दाग्नि दूर हो जाती है।
थायरॉयड संबंधी समस्याएं नहीं होती है।
गर्दन दर्द,कंधे का दर्द नहीं होता है।
कमर  व कंधे मजबूत होते है।
नितम्बों के जोड़ मजबूत होते है।
रीढ़ की हड्डी संबंधी रोग नहीं होते है।
सिर  दर्द नहीं होता है।
मोटापे को दूर करती है।
सावधानियाँ : 
खाली पेट ही अभ्यास करें।
अभ्यास को धीरे धीरे ही बढ़ाये।
अभ्यास के कार्यकाल में पर्याप्त भोजन करें।
कमर में दर्द हो तो अभ्यास न करें।
गर्दन व कंधो में दर्द हो तो अभ्यास ना करें
नितम्बों में दर्द हो तो अभ्यास न करें।
अगर शरीर का स्वभाव उष्ण है तो हल्का अभ्यास करें।
प्राम्भिक दिनों में इस मुद्रा के अभ्यास से कब्ज भी बढ़ सकता है। उससे घबराए नहीं बस अभ्यास को थोड़ा धीमा कर ले ,और बालक की तरह धीरे धीरे इसका अभ्यास बढ़ाये। इसके साथ ही गरिष्ठ भोजन न ले,घी का उपयोग करें ,तथा कोई कब्ज को दूर करने वाली औषधि का कुछ दिनों तक सेवन करें।



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