25 Sept 2020

धारणा

धारणा 

पतंजलि योग शुत्र  में चार पाद है १. समाधिपाद २. साधना पाद ३ विभूतिपाद ४. कैवल्यपाद विभूतिपाद में योग की विभूति का वर्णन है। 
विभूतिपाद में योग के अंतरंग धारणा, ध्यान तथा समाधि  का वर्णन किया गया है  इन तीनो को मिलकर संयम कहा जाता है।  इस पाद के प्रथम शुत्र  में ही  धारणा का वर्णन करते हुए कहा गया है -
"देशबन्धश्चित्तस्य  धारणा "
चित्त का वृत्तिमात्र  से किसी स्थान विशेष में बांधना "धारणा "कहलाता है।  वृत्ति-व्यापर, या चित्त में चलने वाली विषयों की श्रृंखला को कहते है।  इस प्रकार चित्त अपने व्यापर को किसी स्थान विशेष जैसे आज्ञा चक्र, विशुद्धिचक्र, अनाहतचक्र अथवा सूर्य, चन्द्रमा  या किसी वाह्य स्थान पर बांधना या रोकना, ठहराना या लगाना ही धारणा कहलाती है। 
ध्यान अवस्था में भी  जब प्रत्याहार द्वारा  इन्द्रियां अन्तर्मुख हो जाती हैं,चित्त अपने ध्यान के विषय को वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।  क्योंकि  ये चित्त का धर्म है कि  वो किसी भी विषय को वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।प्रारंभिक अवस्था में भी चित्त बहार के विषयों को  इन्द्रियों द्वारा वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।  
जब चित्त द्वारा ध्येय विषय  अर्थात ध्यान का विषय  वृत्तिमात्र से ग्रहण किया जाता है तब वह वृत्ति ध्येय के विषय (अर्थात जिसमे ध्यान  लगाया गया है।  उसी ध्यान के विषय  (नाभि , हदयाय, कमल आदि ) से सामान हो कर स्थिर रूप से चित्त के स्वरुप को प्रकाशित करने लगती हैं। 
हम कह सकते हैं जब योग के प्रथम  पांच अंगों से चित्त स्थिर होने लगे तो उसको अन्य विषयों से हटते हुए एक ध्येय विषय (जैसे नाभि ह्रदय, चाँद, तारों आदि ) में वृत्तिमात्र से ठहरना ही धारणा कहलाती है। 
धारणा की अवस्था में बीच बीच में वृत्ति बहिरंग होती रहती है लागतार एकतानता (सामान प्रवाह  में )नहीं रहती है। अर्थात सरल शब्दों में कहूं तो कुछ समय के लिए ध्यान लगा और उसके बाद भांग हो गया है।यह प्रक्रिया इसी रूप में चलती रहती है।इसे ही धारणा कहते है। 

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