11 Aug 2015

कपालभाति

कपालभाति 
षट्कर्म में अंतिम स्थान कपालभाति का दिया है। घेरण्ड सहिता में अनुलोम विलोम को कपालभाति कहा है। 
हठयोग प्रदीपिका में कहा है की 
भस्त्रावलोहकारस्य रेचेपुर्रो संसभ्रर्मो। 
लुहार की धौकनी के समान शीघ्रता से रेचक पूरक करना ही कपालभाति  है। अर्थात तेजी श्वांस निकालना और तेजी से श्वांस भरना। 
कपालभाति का इतना ही वर्णन हठयोग प्रदीपिका में है। कपालभाति के उपरोक्त वर्णन से यह बात स्पष्ट है की यह क्रिया दो प्रकार से की जा सकती है। 
प्रथम प्रकार में श्वांस को झटके के साथ बहार निकालते है और उदर को अंदर की तरफ खीचते है। इसमें श्वांस लेने का कोई ध्यान नहीं रखते अर्थात बार श्वांस बाहर निकालते है ,लेने की प्रक्रिया स्वतः ही चलती है। (वर्तमान में यह कपालभाति ही अधिक प्रचलित है )
दूसरे प्रकार में उपरोक्त प्रक्रिया के बिलकुल विपरीत करते है इसमें श्वांस को लेते हुए उदर को बाहर की तरफ निकलते है इसमें श्वांस को निकालने का ध्यान नहीं रखते है वह प्रक्रिया स्वतः ही चलती रहती है। 
साधारणतय कपालभाति को पद्मासन,सिद्धासन, या किसी भी सुखसँ में बैठकर कर सकते है ,परन्तु अनुभव से महसूस हुआ है की कपालभाति पद्मासन में सबसे अधिक लाभ प्रदान करता है
  

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