जालन्धर बन्ध
तीसरे जिस मुख्य बन्ध का वर्णन हठयोग में किया गया है वह जालन्धर बन्ध है। सभी ग्रंथो में जालन्धर बन्ध का वर्णन किया गया है। गर्दन से लगने वाला यह मुख्य बन्ध है।
विधिः
जालन्धर बन्ध के सम्बन्ध में कहा गया है -
"कण्ठमाकुच्चय ह्रदये स्थापयेचचिबुकम दृढं। "
कण्ठ को संकुचित कर ह्रदय में चिबुक को दृढ़तापूर्वक लगावे। अर्थात अपनी ठुड्डी को निचे गले में एक जगह सटाकर जितनी देर रोक सकते है उसी अवस्था में श्वांस को रोकते है।
लाभ :
हठयोगप्रदीपका में कहा गया है की -
"बांधो जालन्धराख्योअयम् जरामृत्युविनाशकः "
यह बन्ध बुढ़ापा और मृत्यु को दूर कर देता है।
"बध्नाति हि शिराजालमधोगामिनभोजलम्।
ततो जालन्धरो बन्धः कण्ठदुखौघनाशनः।।"
कंठ सम्बन्धी रोग समूहों को नष्ट करने वाला यह जालन्धर बन्ध नाड़ी समूहों को बाँधता है। और निचे की और जाने वाले सोम रस के स्राव को रोकता है।
"न पीयूषं पत्त्यग्नो न च वायुः प्रकुप्यति। "
जिससे सोमरस जठराग्नि से नहीं जलता और वायु का भी प्रकोप नहीं होता है।
" कंठसंकोचनेनैव द्वे नाड्यो स्तम्भयेद् दृढ़म्।
जिससे सोमरस जठराग्नि से नहीं जलता और वायु का भी प्रकोप नहीं होता है।
" कंठसंकोचनेनैव द्वे नाड्यो स्तम्भयेद् दृढ़म्।
मध्यचक्रमिदम् ज्ञेयं षोडशाधारबन्धनम्।। "
कंठ संकोच के द्वारा ही दोनों इड़ा व पिंगला नाड़ियो में बहने वाले प्राण को दृढ़ता पूर्वक रोकते है जिससे शरीर में सोलह आधारो पर नियंत्रण मिलता है।
"मूलस्थानं समाकुच्चय उड्डीयान तू कारयेत्।
इड़ा च पिंगला बद्ध्वा वाहयेत् पश्चिमे पथि।।
अनेनैव विधानेन प्रयाति पवनो लयम्।
ततो न जयते मृत्युर्जरारोगादिकं तथा।।"
सबसे पहले मूलबंध लगाकर उड्डीयान बन्ध लगाना चाहिए। उसके बाद जालन्धर बांध के द्वारा इड़ा पिंगला को रोककर पीछे के मार्ग से अर्थात सुषुम्ना नाडी से प्राण का संचार करना चाहिए। इस प्रक्रिया से श्वांस ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कर जाता है।जिससे मृत्यु,बुढ़ापा आदि नहीं होते है।
घेरण्ड सहिंता,शिवसहिंता तथा अन्य ग्रंथो में भी जालन्धर बन्ध के यही फल कहे गये है।
विश्लेषण :
अनुभवी साधको द्वारा बताया जाता है की हमारे सोममण्डल में अर्थात तालुमूल से एक अति विशेष ,अतिदुर्लभ तथा अति उत्तम रस निकलता है। यह रस दिव्य गुणों वाला होता है। इसलिए ही इसे सोमरस कहते है। यही सोमरस शरीर को अमरत्व प्रदान करता है। अर्थात यदि हम इस सोमरस के क्षरण को रोक दे तो शरीर की अवस्था युवक के समान रहेगी। वह बूढ़ा नहीं होगा। सोमरस स्वभाव से निचे की तरफ,नाभि की तरफ बहता है,जिससे नाभि में उपस्थित जठर अग्नि या सूर्य द्वारा इसका भक्षण हो जाता है।इसी कारण शरीर का क्षरण होने लगता है। इस बन्ध से हम निचे की और बहने वाले सोमरस को रोक देते है। जिससे व्यक्ति की आयु स्थिर हो जाती है। यह शरीर के सोलह आधारो पर भी नियंत्रण करता है। ये सोलह आधार शरीर के अंग है।
शरीर के ये अंग -
पाँव का अंगूठा,टखना,घुटना,जंघा,सिवनी(गुदा),उपस्थ,नाभि,ह्रदय,ग्रीवा,जीभ,नासिक,भ्रूमध्य,ललाट,
ललाट का ऊपरी भाग और ब्रह्मरंध्र है। इन सभी अंगो पर साधक का नियंत्रण हो जाता है।
वर्तमान परिदृश्य में इस बन्ध के अनेक लाभ है। जैसे गले का रोग नहीं होता ,गले का पकना,खासी,गले में खुजली,नजला,जुकाम दूर हो जाते है। गले का बैठना बन्द हो जाता है। आवाज स्पष्ट हो जाती है।थायरॉयड की समस्या दूर हो जाती है। श्वांस लम्बा हो जाता है। गैस सम्बन्धी समस्या दूर हो जाती है।भूख अच्छी लगती है। गर्दन दर्द ठीक हो जाता है।
सावधानियाँ :
स्पॉन्डिलाइटिस के रोगी धीरे धीरे अभ्यास करे।
तेज गर्दन दर्द हो तो अभ्यास न करे।
श्वांस को रोकने में अधिक दबाव न बनाये।
दोनों बन्ध के बाद ही इसे लगाये।
"मूलस्थानं समाकुच्चय उड्डीयान तू कारयेत्।
इड़ा च पिंगला बद्ध्वा वाहयेत् पश्चिमे पथि।।
अनेनैव विधानेन प्रयाति पवनो लयम्।
ततो न जयते मृत्युर्जरारोगादिकं तथा।।"
सबसे पहले मूलबंध लगाकर उड्डीयान बन्ध लगाना चाहिए। उसके बाद जालन्धर बांध के द्वारा इड़ा पिंगला को रोककर पीछे के मार्ग से अर्थात सुषुम्ना नाडी से प्राण का संचार करना चाहिए। इस प्रक्रिया से श्वांस ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कर जाता है।जिससे मृत्यु,बुढ़ापा आदि नहीं होते है।
घेरण्ड सहिंता,शिवसहिंता तथा अन्य ग्रंथो में भी जालन्धर बन्ध के यही फल कहे गये है।
विश्लेषण :
अनुभवी साधको द्वारा बताया जाता है की हमारे सोममण्डल में अर्थात तालुमूल से एक अति विशेष ,अतिदुर्लभ तथा अति उत्तम रस निकलता है। यह रस दिव्य गुणों वाला होता है। इसलिए ही इसे सोमरस कहते है। यही सोमरस शरीर को अमरत्व प्रदान करता है। अर्थात यदि हम इस सोमरस के क्षरण को रोक दे तो शरीर की अवस्था युवक के समान रहेगी। वह बूढ़ा नहीं होगा। सोमरस स्वभाव से निचे की तरफ,नाभि की तरफ बहता है,जिससे नाभि में उपस्थित जठर अग्नि या सूर्य द्वारा इसका भक्षण हो जाता है।इसी कारण शरीर का क्षरण होने लगता है। इस बन्ध से हम निचे की और बहने वाले सोमरस को रोक देते है। जिससे व्यक्ति की आयु स्थिर हो जाती है। यह शरीर के सोलह आधारो पर भी नियंत्रण करता है। ये सोलह आधार शरीर के अंग है।
शरीर के ये अंग -
पाँव का अंगूठा,टखना,घुटना,जंघा,सिवनी(गुदा),उपस्थ,नाभि,ह्रदय,ग्रीवा,जीभ,नासिक,भ्रूमध्य,ललाट,
ललाट का ऊपरी भाग और ब्रह्मरंध्र है। इन सभी अंगो पर साधक का नियंत्रण हो जाता है।
वर्तमान परिदृश्य में इस बन्ध के अनेक लाभ है। जैसे गले का रोग नहीं होता ,गले का पकना,खासी,गले में खुजली,नजला,जुकाम दूर हो जाते है। गले का बैठना बन्द हो जाता है। आवाज स्पष्ट हो जाती है।थायरॉयड की समस्या दूर हो जाती है। श्वांस लम्बा हो जाता है। गैस सम्बन्धी समस्या दूर हो जाती है।भूख अच्छी लगती है। गर्दन दर्द ठीक हो जाता है।
सावधानियाँ :
स्पॉन्डिलाइटिस के रोगी धीरे धीरे अभ्यास करे।
तेज गर्दन दर्द हो तो अभ्यास न करे।
श्वांस को रोकने में अधिक दबाव न बनाये।
दोनों बन्ध के बाद ही इसे लगाये।
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