11 Feb 2016

मूलबन्ध

मूलबन्ध 
मूलबन्ध अर्थात मुख्य बन्ध या जड़ का बन्ध। मनुष्य की जड़ गुदा को कहा जाता है। इस प्रकार वह बन्ध जो गुदा के द्वारा लगाया जाता  है उसे मूलबन्ध कहते है। प्राणायाम के अभ्यास में यह मुख्य है। इसके सम्बन्ध में हठयोगप्रदीपिका व घेरण्ड सहिंता दोनों ग्रंथो में वर्णन किया गया है। 
विधिः 
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है कि -
भागेन सम्पीड्य योनिमकुञ्चयेद् गुदम्। 
अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबंधोअभिधीयते।।"
एड़ी से सिवनी को दबाकर गुदा का आकुञ्चन करके अपान वायु को उपर की और खींचकर रखने से मूलबन्ध बनता है। 
घेरण्ड सहिंता में वर्णित मूलबन्ध की विधि कुछ भिन्न है परन्तु गहनता से देखने पर समझ आ जाएगा कि दोनों की विधि समान है। -
"पार्ष्णिना वामपादस्य योनिमाकुच्चयेत्ततः। 
नाभिग्रंथिम मेरुदण्डे सम्पीड्य यत्नतः सुधीः।।
मेढ्रं दक्षिणगुल्फे तू दृढ़बन्धं समाचरेत। 
जराविनाशिनी मुद्रा मूलबंधो निगद्यते।।"
गुह्यप्रदेश को वाम एड़ी से आकुञ्चित कर यत्नपूर्वक मेरुदण्ड के साथ नाभि ग्रंथि को भीतर की और खींचकर पीठ से सटाने के पश्चात उपस्थ को दाहिनी एड़ी से दृढ़ता पूर्वक दबाकर रखने को मूलबन्ध कहते है। 
कहने का अर्थ यह है कि गुदा को संकुचित करके नाभि को पीठ से सटाकर रखते है। यथासम्भव रुकते है और अपान  वायु को उपर की और खीचने का अभ्यास करते है,फिर धीरे धीरे वापस आ जाते है। 
फल (लाभ ):
मूलबन्ध के सम्बन्ध में हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है। -
"गुदम पाषणर्या तू सम्पीड्य योनिमकुञ्चयेद् बलात। 
वारं वारं यथा चोधर्व समायति समीरणः।।"
एड़ी से गुदा को दबाकर बलपूर्वक योनि का आकुञ्चन करे जिससे अपान वायु उपर की और चलने लगती है 
इस अपान वायु के उपर को चलने से क्या होता है ,उसका वर्णन निम्न प्रकार है -
"प्राणापानौ नादबिंदु मूलबन्धेन चैकताम। 
गत्वा योगस्य संसिद्धि यच्छतो नात्र संशयः।।"
मूलबन्ध के द्वारा प्राण और अपान तथा बिन्दु तथा नाद जब एकरूप हो जाते है तब साधक को योग में सफलता मिलती है। 
इसके फल के बारे में फिर कहा गया है -
"अपानप्राणयोरैक्यं क्षयो मूत्रपुरीषयोः। 
युवा भवति वृद्धोअपि सततं मूळबंधनात्।।"
निरंतर मूलबंध का अभ्यास अपान प्राण को मिलाता है ,जिससे मलमूत्र की अल्पता होती है तथा वृद्ध भी युवक के समान हो जाता है। 
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है कि -
"संसारसागरं तत्तुमभिलषति यः पुमान्। 
विरलेषु गुप्तो भूत्वा मुद्रमेनां समभ्यसेत्।।
अभ्यासद्धंधनस्यास्य मरुतसिद्धिर्भवेद् ध्रवम्। 
साध्येद्यत्नतो तर्हि मौनी तू विजितालासः।।" 
जो लोग संसार सागर से पार होने की कामना करते है उन्हें एकांत में गुप्त रूप से अवस्थित होकर इस मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए। इसके अभ्यास से साधक को मरुत सिद्धि की प्राप्ति होती है। 
इसके बारे में श्री मद्भगवदगीता में योगेश्वेर भगवान श्री कृष्ण ने कहा है की - 
"अपानेजुहोवति प्राणं प्राणः अपानं तथा परे। 
प्राणः अपान गति रुद्ध्वा प्राणायाम परायणाः।।"
उस परम तत्व की प्राप्ति के लिए ,उस ईश्वर की प्राप्ति के लिए अलग अलग लोग अलग अलग प्रकार से प्रयास करते है 
कई पुरुष अपान वायु में प्राण का हवन करते है,और दूसरे कई प्राण का अपान में हवन करते है। अन्य कई प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम के परायण हो जाते है।   
विश्लेषण :
योग की सभी क्रियाये आसान,प्राणायाम और मुद्राये विशेष फल देने वाली है। किसी एक क्रिया का अभ्यास करने के फलस्वरूप ही एक अनोखी शारीरिक या मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। परन्तु यह शक्ति या ऊर्जा तभी प्राप्त होती है जब आप योग के प्रथम दो अंग यम और नियम का पूर्ण पालन करते है। मूलबंध भी ऐसी ही योगिक क्रिया है जिससे शरीर में ऊर्जा या शक्ति प्राप्त होती है। 
इसमें गुदा का संकुचन करके अपान वायु को उपर की तरफ चलाते है। ऐसा करने से क्या होता उसका वर्णन निम्न प्रकार है -
शरीर में पांच प्रकार के प्राण होते है जिनके वासस्थान भी अलग अलग होते है। तथा उनके कार्य भी अलग अलग होते है।
इन पांच प्राणो के नाम प्राण,समान,व्यान,उदान,और अपान है।प्राण का स्थान सबसे उपर तथा अपान सबसे निचे होता है। अन्य तीनो  इन दोनों के बीच होते है।जो वायु नासिक से ली जाती है प्राण तथा जो वायु गुदा मार्ग से बाहर निकलती है अपान वायु कहलाती है।
अपान वायु के मार्ग को बाधित करके अर्थात गुदा का संकुचन करके उस अपान वायु को धीरे धीरे उपर की तरफ खीचने का अभ्यास करते है। कुछ समय के अभ्यास के बाद अपान  वायु उपर चढ़ने लगती है ,जब ये वायु उपर की तरफ चढ़ती है तो शरीर में जैसे ऊर्जा के स्रोत फूटने लगते है। अपान वायु  वहिनमंडल में पहुचने पर शरीर में एक अग्नि उत्पन्न होती है जो शरीर का ताप बढ़ा देती है। यह अग्नि एक योगिक अग्नि ही होती है। इस अग्नि के बहुत से प्रभाव व लाभ साधक को प्राप्त होते है जैसे साधक लगभग न के बराबर ही मलमूत्र का त्याग करने लगता है। इसका अर्थ यह है की शरीर को प्राप्त होने वाला सम्पूर्ण भोजन शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के लिए उपयोग हो जाता है। अपशिष्ट के रूप में ना के बराबर ही कुछ प्राप्त होता है। जब ऊर्जा अधिक मिलेगी तो शरीर का क्षरण भी कम होगा और वह युवावस्था में ही रहेगा।
जब अपान वायु तथा यह अग्नि या गर्म अपान वायु ,प्राण वायु से मिलती है तो प्राण को भी अतिउष्ण कर देती है। और पुरे शरीर में जैसे आग सी लग जाती है। शरीर में उत्पन्न यह अग्नि ,यह उष्णता एक दूसरे विशाल शक्तिपुंज को सक्रिय या जाग्रत करने का कार्य करती है जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते है। यह कुण्डलिनी जो सुषुप्त अवस्था में लपेटे मारकर सोयी रहती है। इस उष्णता से व्याकुल होकर वह जाग जाती है। और प्राण के साथ ब्रह्मनाड़ी में ऐसे प्रवेश कर जाती है जैसे सर्प बिल में प्रवेश कर जाता है।
 अब कही जाकर कुछ समझ आता है की ग्रंथो में प्राण अपान का इतना अधिक वर्णन क्यों है।
इस प्रकार कहा जा सकता है की इस बन्ध के अभ्यास से साधक को पेट रोग (जैसे कब्ज,अपच,मंदाग्नि ),मूत्र  रोग,गुदा रोग (जैसे बवासीर,भगन्दर ) जैसे रोग नहीं होते है। व्यक्ति की किडनी मजबूत होती है। गैस नहीं बनती है ,लिवर सही रहता है। सुगर नहीं होता है। व्यक्ति की पाचन क्रिया ठीक रहती है। फेफड़ो का संकुचन आकुंचन अच्छा होता है। आंतो  के रोग नहीं होते है। गैस सम्बन्धी समस्याये जैसे गठिया ,गर्दन दर्द,हाथ ,पैर का दर्द नहीं होता है। इसके अभ्यास से कफ दोष भी दूर हो जाता है। 
सावधानियाँ :        
शरीर का ताप बढ़ना ,यह एक योगिक अवस्था है इसकी प्राप्ति के लिए आम साधक को इस प्रकार अभ्यास नहीं करना चाहिए क्योकि एक बार अपान का उपर चढ़ना प्रारम्भ हो जाने के बाद बिना गुरु मार्गदर्शन के वह नहीं रुकता है। जिससे शरीर में बहुत भारी गर्मी लगती है ,ऐसा लगता है जैसे शरीर में आग लगी हो। बड़े भारी व तेज ताप से शरीर जला हुआ महसूस होता है। इसके बाद एक अवस्था और आगे की आती है जिसमे साधक को नाद सुनाई देने लगता है। यह नाद क्या है ?ब्रह्माण्ड में जितनी ध्वनियाँ है सभी शरीर में भी होती है। इन सभी सयुक्त ध्वनियों को ही नाद कहते है।इन सभी ध्वनियों को सुनना ही नाद अनुसन्धान है। व्यक्ति को ढोल,नगाड़े,बाँसुरी बड़ी बड़ी भयानक  असंख्य प्रकार की अनसुनी कोमल ,कठोर व डरावनी आवाजे सुनायी देती है। अगर पूरा अधिकार शरीर पर नहीं है या योग्य गुरु का मार्गदर्शन नही तो उत्पन्न होने के बाद इन ध्वनियों को रोक पाना असम्भव हो जाता है। ये कभी भी किसी भी अवस्था में साधक को सुनाई देने लगती है।उसके लिए यह बड़ी ही भयावह अवस्था हो जाती है,और साधक पागल ही हो जाता है।  
  • साधको की सावधानी हेतु यहाँ एक  सच्ची घटना का वर्णन करता हु जो  परमपूज्य स्वामी योगिराज जी महाराज ने एक बार सुनाई थी। स्वामी जी महाराज के गुरु स्वामी शिवानन्द तीर्थ  महाराज थे। जिनका आश्रम गीताघाट सासाराम बिहार में है। वही पर उनके पास एक भक्त आते थे जो अक्सर गुरूजी से नाद अनुसन्धान की बाते करते थे। एक दिन जब उन्होंने अति उत्सुकता से गुरु जी को नाद अनुसन्धान की प्रक्रिया पूछी तो  गुरूजी ने प्राण अपान की सारी प्रक्रिया बता दी और साथ ही चेतावनी दी की तुम्हारा शरीर इसके लिए तैयार नहीं है अतः इसका अभ्यास मत करना। परन्तु वह नहीं माना और अभ्यास शुरू कर दिया।अभ्यास के बाद नाद अनुसन्धान हो गया,हो तो गया,परन्तु वह फिर बंद न हुआ। क्योकि शरीर उस ऊर्जा के लिए तैयार ही नहीं था। कुछ ही समय में वह पागल हो गया ,किसी भी वक़्त वह नाद बजने लगता था वह चीखता था ,चिल्लाता था ,रोता था दीवारो में सिर को मरता था, मगर वह नाद बंद नहीं होता था। बाहर की कोई ध्वनि हो तो उसे कम या बंद भी कर सकते है। परन्तु अंदर की उन आवाजो को कैसे बंद करे। नाद कही भी किसी भी वक़्त बज जाता था। वह घबराता था ,डरता था की ना जाने कब यह बजने लगेगा।
  • अतः इस क्रिया का अभ्यास विशेष साधना के रूप मे (नाद अनुसन्धान के लिए) गुरु मार्गदर्शन के तथा यम,नियम,आसन,प्राणयाम सिद्धि के बिना न करे ,वरना लेने के देने पड़ जायेगे। 
  • खाली पेट ही इसका अभ्यास करे। 
  • अगर बवासीर की समस्या बढ़ी हो तो इसका अभ्यास न करे। 
  • हर्निया रोग हो तो अभ्यास न करे। 
  • गर्भवती महिला इसका अभ्यास न करे।



























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