16 Jun 2016

शाम्भवी मुद्रा

शाम्भवी मुद्रा 
शाम्भवी मुद्रा
शाम्भवी का अर्थ  होता है शिवप्रिया अर्थात शिव की पत्नी। यह मुद्रा एक ध्यानात्मक मुद्रा है,अर्थात इसमे विशेष कोई शारीरिक क्रिया नहीं करनी होती है। बस आँखों को आज्ञाचक्र पर स्थिर करना होता है।कहा जाता है की यह मुद्रा साधक की सभी इच्छाओं को पूर्ण कर देती है घेरण्डसंहिता में ही इस मुद्रा का वर्णन है।
विधि
"नेत्रञ्जनं समालोक्य आत्मारामं निरीक्षयेत। 
सा भवेच्छाम्भवी मुद्रा सर्वतन्त्रेषु गोपिता।।"
किसी भी स्थिर आसान मे बैठकर दृष्टि को दोनों भौहो के मध्य भाग मे स्थिर करके मन को भी उसी स्थान पर एकाग्र कर के परमात्मा का ध्यान करना है शाम्भवी मुद्रा है। 
लाभ :- 
"वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव। 
इयन्तु शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कूलघुरिव।।"
समस्त वेद,छ: दर्शन शास्त्र तथा अट्ठारह पुराण सब गणिका (वेश्या) के समान है तथा शाम्भवीमुद्रा कुलीन एवं अच्छे आचरण वाली कुलवधु के समान है।
"स एवं आदिनाथच्च स च नारायणः स्वयम। 
स च ब्रह्मा सृष्टीकारी यो मुद्रां वेत्ति शाम्भवी।।"
शाम्भवी मुद्रा सिद्ध योगी स्वयं ही आदिनाथ,नारायण और सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला ब्रह्मा है। 
"सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्यमुक्त माहेश्वरः।
शाम्भवी यो विजानीयात्स च ब्रह्मा न चन्यथा।।"
भगवान महेश्वर ने कहा है की जो इस शाम्भवी मुद्रा को जानता है।वह साक्षात स्वरूपधिष्ठित ब्रह्मा ही है।यह त्रिकाल सत्य है।इसमे कुछ भी संदेह नहीं है।
विश्लेषण : त्राटक करने वाले साधक के लिए यह मुद्रा त्राटक के समान ही हैत्राटक मे हम बाह्य  किसी वस्तु पर  ध्यानस्थ होते हैं तथा शाम्भवी मुद्रा में भौंहों  के मध्य परमात्मा  का अवलोकन करते हैं।दोनों में ही जब खुली आँखों से सब कुछ दिखाई देना बंद हो जाए,तो वह शाम्भवी व त्राटक  की ध्यानस्थ होने की प्रारम्भिक अवस्था है। इससे होने वाले लाभ शारीरिक भी हैं। मासिक भी तथा आध्यात्मिक भी हैं।शारीरिक स्तर पर यह तीनों दोषों वात ,पित ,कफ को समावस्था में करती है।सिरदर्द ,गैस का बनना ठीक हो जाता है। वा रोग जैसे गठिया,गर्दन या कंधों का दर्द ठीक हो जाता है।धातु पतन होना ठीक हो जाता है और भी अनेक असंख्य लाभ होते हैं। मानसिक स्तर पर डिप्रेशन ,चिंता ,घबराहट ,तनाव जैसे रोग दूर हो जाते हैं।तथा आध्यात्मिक स्तर पर अगर बात करूँ तो शायद तथ्य परक कुछ कह ना पाऊँ।
अष्टांग योग में महर्षि पतंजलि ने समाधि के दो प्रकार हैं
संप्रज्ञात समाधि तथा असंप्रज्ञात समाधि
संप्रज्ञात समाधि मे चित्त अपने कारण मे लीन नहीं होता है, उसे अपने स्वरूप का ज्ञान रहता है।
तथा असंप्रज्ञात समाधि में चित्त अपने कारण में लीन हो जाता है।
शाम्भवी मुद्रा से सीधे संप्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है। इस मुद्रा के अभ्यास से छटे नंबर का चक्र ,आज्ञाचक्र जाग्रत होता है।
संप्रज्ञात समाधि योग की अंतिम अवस्था असंप्रज्ञात समाधि से बस एक कदम पीछे होती है।
इस प्रकार आध्यात्मिक स्तर पर  अविद्या आदि कलेशोंका नाश हो जाता है। सत्वगुण ,रजोगुण तथा तमोगुण को दबाकर बहुत उच्च स्थिति मे रहता है,और साधक विवेक ख्याति की प्राप्ति करता है यह विवेक ख्याति भी बहुत उच्च अवस्था है जिसका वर्णन दूसरे ब्लॉग मे करेंगे।
सावधानियाँ :-
 किसी भी आसान मे स्थिर बैठें
खाली पेट अभ्यास करने से मन आँखों के साथ शीघ्र स्थिर होता है।
कमर,गर्दन सीधी रखें
 हाथों से ज्ञान मुद्रा लगाएँ।
अगर आँखों में दृष्टि सम्बन्धी कोई समस्या हो तो अभ्यास बहुत ही धीमी गति से करें
दृष्टि को स्थिर करने के लिए कुछ दिन त्राटक कर लें। 






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