अश्विनी मुद्रा
अश्विनी मुद्रा का वर्णन घेरण्ड संहिता में किया जाता है। और कहा गया है की -
"आकुच्चयेद गुदद्वारं प्रकाशयेत्पुनः पुनः।"
गुदा प्रदेश को बार - बार आकुच्चित तथा प्रसारित करने की क्रिया को अश्विनी मुद्रा कहते है। अर्थात कह सकते है, की जिस प्रकार घोड़ा मल त्याग के बाद बार - बार गुदा को सिकोड़ता है ओर फैलाता है, साधक को उसी प्रकार बार - बार करना है। यही मुद्रा अश्विनी मुद्रा है।
लाभ :-
" सा भवेदश्विनी मुद्रा शक्तिप्रबोधकारिणी। "
यह मुद्रा शक्ति को जगाने वाली है।
"अश्विनी परमा मुद्रा गुह्यरोगविनाशिनी।
बलपुष्टिकरी चैव अकालमरणं हरेत।"
इसके अभ्यास से साधक के गुप्त रोगों का नाश हो जाता है।शरीर को बल व पुष्टि प्रदान होती है।तथा अकाल मृत्यु कभी नहीं होती है।
विश्लेषण :- यह मुद्रा वास्तव में शक्ति अर्थात कुण्डलिनी को जाग्रत करने वाली है।जिससे कुंडली जागरण से होने वाले समस्त लाभ साधक को प्राप्त होते है। इसके साथ ही गुदा के रोग (जैसे बवासीर, भगन्दर), मूत्र रोग, धातु रोग, हर्निया, आंतो के रोग, कब्ज, पीलिया, अपच नहीं होते है।गुर्दे मजबूत होते है।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करें।
हर्निया या आँत का कोई रोग हो तो इसका अभ्यास न करें।
पेट का आप्रेशन हुआ हो तो इसका अभ्यास न करें।
प्रारम्भ में धीरे धीरे ही अभ्यास करें।
सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करें।
हर्निया या आँत का कोई रोग हो तो इसका अभ्यास न करें।
पेट का आप्रेशन हुआ हो तो इसका अभ्यास न करें।
प्रारम्भ में धीरे धीरे ही अभ्यास करें।
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