5 Jul 2016

#Yoga Fights Diabetes प्रत्याहार

प्रत्याहार 
हठयोग प्रदीपिका में पांच उपदेश है प्रथम उपदेश में सिद्धो की लम्बी परम्परा व प्रथम अंग के रूप में १५ आसनो का वर्णन है।पथ्य अपथ्य का वर्णन है।  द्वितीय उपदेश में प्राणायाम तथा प्राणायाम में शीघ्रता व गलती से होने वाले रोगों का विवरण व शरीर की शोधन क्रियाए षटकर्म का वर्णन है। तृतीय उपदेश में १० मुद्राओं का वर्णन है।
चतुर्थ अध्याय में कुंडली जागरण, नादानुसंधान तथा समाधि की अवस्था का उल्लेख है।  
पंचम उपदेश में योगाभ्यास करते समय किसी गलती के होने से शरीर में होने वाले रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया है इस उपदेश में अनेक रोगों के उपचार की विधि बताई गयी है। 
उपयुक्त प्रथम चार उपदेशों का हम वर्णन कर चुके है पांचवे उपदेश का वर्णन हम आगे करेंगे।  
उससे पहले घेरण्डसंहिता में वर्णित चतुर्थ उपदेश प्रत्याहार का वर्णन करेंगे।  
घेरण्डसंहिता में हठयोग के सात अंग कहे गये है जो विभिन्न सात उपदेशों में वर्णित है।  
प्रथम उपदेश में शरीर शोधन की छ: क्रियाओं (षटकर्म) का वर्णन किया गया है द्वितीय उपदेश में आसनो का वर्णन है।  तृतीय उपदेश में मुद्राओं का वर्णन है चतुर्थ उपदेश में प्रत्याहार तथा पांचवे, छठे व सातवें उपदेश में क्रमशः प्राणायाम, ध्यान समाधि को रखा गया है।  
घेरण्डसंहिता में मुद्राओं के बाद प्रत्याहार तथा उसके बाद प्राणायाम का वर्णन है। प्राणायाम को हम आसन के बाद कह चुके है उसके बाद मुद्राओं का वर्णन किया। 
अतः अब ध्यान व समाधि के पहले प्रत्याहार का वर्णन करते है। 
प्रत्याहार अगर एक वाक्य में परिभाषित करू तो इंद्रियों का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है।
घेरण्ड संहिता में कहा गया है की -
"यतो यतो मनशचरति मनशचंचलमस्थिरम्।  
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
प्राणी जन्म लेने के बाद जैसे जैसे युवा होता जाता है इस स्थावर जंगम जगत में उसके मन का विचरण भी बढ़ता जाता है और जैसे जैसे मन विचरण करता है वैसे वैसे ही वह चंचल व अस्थिर भी होता जाता है अतः उन उन विषयों से मन को नियंत्रित करते हुए अपने वश में लाना चाहिए। इसी को प्रत्याहार कहा गया है। 
"पुरस्कांर तिरस्कार सुश्राव्य भावमायकम्। 
मनस्तस्मान्नियमयैत दात्मन्येव वशं नयेत।।"
घेरण्ड ऋषि कहते है की चाहे पुरस्कार हो या तिरस्कार सुश्राव्य हो या कटुश्राव्य ये सभी मायामय जगत के प्रपच्च मात्र है इसलिए इन सभी विषयों की और से प्रत्याहार द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए आत्मा के अर्थात अपने वश में करना चाहिए। 
"सुगन्धों वापि दुर्गन्धो घ्राणेंषु जायते मनः।
तस्मात प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
चंचल मन हमेशा सुगंध या दुर्गन्ध को सूँघने में ही लगा रहता है इसलिए प्रत्याहार द्वारा मन को इन सभी सांसारिक वासनाओ की और से निरुद्ध करके अपने वश में रखना चाहिए।  
इसके बाद कहा गया है की -
"मधुरामभ्कत्तिकदिरसान याति यदा मनः। 
तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त आदि जितने भी रस है उनकी ओर मन सहज रूप से आकर्षित रहता है उन सब की ओर मन को प्रत्याहार द्वारा नियंत्रित करके अपने वश में रखना चाहिए। 
विशलेषण:-
योग में दो प्रकार की क्रियाए होती है बाह्य व आंतरिक। स्थूल शरीर में की जाने वाली क्रियाए बाह्य होती है जैसे आसन, प्राणायाम मुद्राये तथा मन या चित द्वारा होने वाली क्रियाए आंतरिक होती है जैसे ध्यान और समाधि। प्रत्याहार इन दोनों किनारों के लिए सेतु का कार्य करता है।यह साधक को जो बाहय अंगो के द्वारा प्रयासरत है उसे आन्तरिक अंगो से जोड़ देता है। अर्थात जो साधक आसन प्राणायाम में प्रयासरत है। प्रत्याहार उसे ध्यान व समाधि की अवस्था में पहुंचा देता है।
अनुभवी साधको के अनुसार प्रत्याहार योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।
प्रत्याहार का स्वरूप क्या है यह तो एक अनुभवी साधक ही बता सकते है। परन्तु स्वयं की अनुभूति से जितना कह सकता हूँ उसका वर्णन साधको के लाभ हेतु कह रहा हूँ। प्रत्याहार योग का ऐसा अंग है जो साधक को जिसका सम्पूर्ण व्यवहार इस स्थूल जगत में होता है उसे सूक्ष्म जगत से (जिसमे ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियां उपस्थित है) जोड़ देता है। 
प्रत्याहार में इंद्रियों व कमेंद्रियों को उनके विषयों से संयोग होने से रोककर उन्हें अंतर्मुखी करना है।
 अगर ध्यान से आकलन किया जाए तो कहा जा सकता है की प्रत्याहार योग का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका महत्त्व बाह्य व आंतरिक अंगो से अधिक है। प्रत्याहार उस भवन के लिए नींव का कार्य करता है जिस भवन को योग में समाधि कहते है। किसी भी भवन के निर्माण में नींव की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। नींव जितनी मजबूत होगी इमारत भी उतनी ही  मजबूत होगी। प्रत्याहार भी समाधि के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है है। प्रत्याहार की सिद्धि होने पर समाधि स्वभाव से ही प्राप्त हो जाती है।
मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार इस स्थूल जगत में इंद्रियों के स्तर पर ही होता है। 
जैसे -आँखों से कोई दृश्य देखकर व्यक्ति उसी के अनुरूप कार्य करता है। अगर सामने से दिखायीं दिया की सामने से कोई तलवार लेकर हमें मारने के लिए आ रहा है तो व्यवहार में भय आ जायेगा  और वह बचने के लिए इधर उधर भागेगा।यही बात श्रवण इन्द्रिय कि भी है। अच्छे शब्द सुनने पर तथा बुरे शब्द सुनने पर उसी के अनुरूप वृत्ति हो जाती है। गंध के संबंध में भी वही बात है अच्छी या बुरी गन्ध से उसी के समान मनोवृत्ति बनती है। अर्थात कह सकते है की इन इंद्रियों के विषयो से संयोग होने पर ही मनुष्य की मनोवृत्ति का निर्माण होता है। यह मनोवृत्ति उसी के समान कर्म का निर्माण कराती है। या करती है। अर्थात मनुष्य उसी अच्छे या बुरेभाव से कर्म करता है। इस प्रकार किया गया कर्म या किसी भी भाव से किया गया कर्म बंधन का कारण बनता है। अर्थात बार बार आवागमन का कारण बनता है। मनुष्य बार बार जन्म लेता है ,अपनी मनोवृत्ति के अनुसार कर्म करता है। मरता है और फिर जन्म लेकर उसी के समान कर्म करता है। प्रत्याहार इस मनोवृत्ती को रोकने का एक साधन है। अर्थात प्रत्याहार से इंद्रियों के विषयों का संयोग रोक दिया जाता है। 
ऐसा नहीं होता की प्रत्याहार से आँखे कोई दृश्य नहीं देखती ,कान कोई शब्द नहीं सुनते या नाक कोई गंध ग्रहण नहीं करते,त्वचा से स्पर्श नहीं होता या जीभ किसी रस का ग्रहण नहीं करती है।
प्रत्याहार का साधक सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता,सब कुछ सुनते हुए भी कुछ नहीं सुनता ,सब कुछ सुंघते हुए भी कुछ नहीं सूंघता ,उसी प्रकार सब कुछ स्पर्श व रस ग्रहण करता हुआ भी कुछ नहीं करता।
अर्थात वह सब कुछ देखता भी है।सुनता भी है सूंघता भी है और स्पर्श भी करता है व रस भी ग्रहण करता है परन्तु दृश्य के प्रति उसकी कोई भी मनोवृत्ति नहीं  होती  है। किसी भी भाव में उसकी कोई आशक्ति नहीं होती है। शत्रु को तलवार लेकर आते हुए देखकर भी वह बिना किसी भय के,डर के रहता है। वह (अपने शरीर में इस जीवन में आशक्ति होने के कारण नहीं) ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस शरीर की रक्षा के लिए ,ईश्वर द्वारा प्रदत्त कर्तव्य कर्म समझकर अपना बचाव करता है। परन्तु उस बचाव में उसका अपना कोई भाव नहीं होता। शरीर भी ईश्वर प्रदत्त है ,कर्म भी ईश्वर प्रदत्त है और मृत्यु भी ईश्वर प्रदत्त। उसमे उसका न जीवन है और ना ही मृत्यु है। 
कानो से कोई मीठा या कटु शब्द सुनने के बाद भी वह किसी मनोवृति को प्राप्त नहीं होता शत्रु या मित्र द्वारा कहे गए शब्दों के प्रति वह अनाशक्त भाव से रहता है। गंध के साथ भी प्रत्याहार का साधक उसी भाव में रहता है अर्थात सुगन्ध या दुर्गन्ध के प्रति वह आकर्षित नहीं होता है। उसी सम अवस्था में रहता है। अन्य इन्द्रियों के साथ भी अर्थात कठोर या कोमल स्पर्श और किसी भी प्रकार का रस प्राप्त होने पर भी साधक उसे निस्वार्थ भाव से ,बिना किसी उद्वेग के शांत चित्त से ग्रहण कर लेता है।
अब यह सब कैसे सम्भव है और अगर यह सम्भव है तो कैसे -
इन सब प्रश्नों के उत्तर जब साधक साधना करता है  को स्वयं ही मिल जाते है।आम साधको को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयत्न करता हु।
क्या व्यक्ति आँखों से ही देखता है ,कानो से ही सुनता है,नाक से सूंघता है तथा त्वचा से स्पर्श
व जीभ से रस ग्रहण करता है।
 अगर ऐसा है तो मृत्यु के बाद आँख,कान,नाक,त्वचा और जीभ अपने कार्य क्यों नहीं करते। अथवा अंधे की आँखे खुली होने के बाद भी उसे क्यों दिखाई नहीं देता है। उसी प्रकार बहरे को कान से क्यों सुनायीं नहीं देता है। उसी प्रकार त्वचा व जीभ से सम्बन्धित विषय कुछ लोगो को पता नहीं चलता है,क्यों । वो इसलिए की इन सब को चलाने वाली शक्ति कोई और होती है। वाही आंतरिक रूप से इन इंद्रियों का संचालन करती है।
कभी कभी हम महसूस करते है की हमारे सामने से कोई गुजर जाता है और हम उसे अाँखे खुली होने के बाद भी देख नहीं पाते।कई बार कोई कुछ कहता है लेकिन हम सुन नहीं पाते। कभी कोई स्पर्श करता है या कुछ खाते हुए भी हमे उस स्पर्श या रस की अनुभूति नहीं होती है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है की इन सब से अलग कोई शक्ति है जो इन सब इन्द्रियों के चलाने का मूल है।
क्या है वह शक्ति ?
उस शक्ति को योग में चित्त कहा गया है अन्य शास्त्रों जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में इसे मन कहा गया है।
यह शक्त्ति मन ही है। मन को इन्द्रियों के समूह में ही रखा गया है। और इन्द्रियों का स्वामी भी कहा गया है। 
मन का वर्णन करते हुए  भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते। 
तदस्य हरति प्रज्ञा वयुनिवभिवाम्भसि।।" 2 -67 
यह मन बड़ा बलशाली है। इन्द्रियों के समूह में से यह जिस एक इन्द्रिय के साथ जाता है। वह एक इन्द्रिय ही उस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण ऐसे कर लेती है। जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है। 
अब स्पष्ट हो गया कि उद्वेग या कोई भी भाव अथवा आसक्ति उस वक्त उत्पन्न होती हैं जब सम्बंधित इन्द्रिय के साथ मिलकर मन उस भाव को या उस विषय को ग्रहण करता है। 
प्रत्याहार द्वारा प्राप्त अवस्था,किसी भी इन्द्रिय का विषय से संयोग होने पर भी कोई आसक्ति ना  होना वास्तव में मन का निग्रह है। 
मन के निग्रह के फल के रूप में भगवान कहते हैं,कि -
"योगयुक्तो विशुद्वात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय :  
                        सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।"   अ ० 5 - श्लोक 7 
जिसका मन अपने वश में है। जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तकरण वाला है। और सम्पुर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसकी आत्मा है। ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उसमे लिप्त नहीं होता है।
 मन का निग्रह होने पर इन्द्रियों का निग्रह स्वतः ही हो जाता है परन्तु इस मन का निग्रह इतना आसान भी नहीं है।  इसी कारण अर्जुन जैसे धनुर्धर भी इस पर नियंत्रण पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। और कहते हैं कि -
"यो अयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसुदनं। 
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।"
हे मधुसूदन ये जो योग आपने समभाव से कहा है ,मन के चञ्चल होने से मैं इसकी
नित्य स्थिति को नहीं देखता हु।
पुनः कहते है की -
"चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम्। 
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायेरिव सुदुष्करम्।।"
हे वासुदेव श्री कृष्ण यह  मन बड़ा चञ्चल,प्रमथन स्वभाव वाला,दृढ़ और बलवान है। इसको वश में करना मैं  वायु को रोकने के समान अत्यन्त दुष्कर मानता हु।
अब यह मन इतना बलशाली व चंचल है तो प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों के साथ इसको कैसे वश में किया जा सकता है। क्योकि यह प्रयास के बाद भी वश में नहीं आता है। यह इंद्रियों के साथ विषयों का संयोग करा ही देता है। संयोग से आशक्तियां पैदा होती है ,जिससे जन्म  मरण का चक्र शुरू होता है। तो फिर प्रत्याहार की सिद्धि कैसे हो ,इंद्रियों से विषयों का संयोग होने से कैसे रोक जाए।
उसी कारण से आसन,प्राणायाम और मुद्राओं का वर्णन प्रत्याहार से पहले किया गया है। उपरोक्त अंगो का अभ्यास ही प्रत्याहार की भूमि को तैयार कर दृढ़ करता है। जिससे प्रत्याहार की सिद्धि हो जाती है।
 इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को मन को वश में करने का साधन बतलाते हुए कहा है की
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। 
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।"
निसंदेह ही यह मन बड़ा चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन !अभ्यास और वैराग्य से यह वश में किया जा सकता है।
प्रत्याहार का पतञ्जलि योग शूत्र में योग के आठ अंगो  में से पांचवे अंग के रूप वर्णन है और अधिक विस्तार पूर्वक इसका वर्णन योग शूत्र के वर्णन के समय किया जाएगा।









No comments:

Post a Comment