श्रीमद्भगवदगीता के अनुसार योग की परिभाषा
भगवदगीता के अनुसार योग की दो परिभाषाएं है
"योगः कर्मषु कौशलम् "
"कर्म में कुशलता ही योग है "
भगवन श्री कृष्ण ने भगवदगीता में निष्काम भाव से कर्म करने का आदेश किया है
प्रत्येक कर्म को उसके फल की इच्छा के लिए न करके बिना किसी इच्छा भाव के सृष्टिकर्म
को आगे चलने के लिए करना ही गीता का उपदेश है
कर्म के फल में आशक्ति ही कर्म बंधन का कारण बनता है तथा ये कर्म बंधन ही मानव को बार बार पुनर्जन्म के चक्र में बाँधे रखता है
जिस कर्म के फल में मानव की अशक्ति ही नहीं होगी ,वो कर्म फल, बंधन का कारण ही नहीं
बनेगा। योग के द्वारा व्यक्ति में इतनी मानसिक व आध्यात्मिक जागरूकता आ जाती है।
वो इस मर्म को जान जाता है और प्रत्येक कर्म को इस प्रकार करता है की वो बार बार
आवागमन का कारण नहीं बनता (उसका बार बार पुनर्जन्म नहीं होता },अर्थात किसी भी कर्म
के फल से उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है।
इस प्रकार " प्रत्येक कर्म को करते हुए भी कर्म बंधन में न बढ़ने की कुशलता ही योग है "
"समत्वं योगः उच्यते "
"मानव को संभव में लाना ही योग है।"
अर्थात वह अवस्था ,साधन या स्थान जिसमे या जिसके द्वारा या जहां मनुष्य सम भाव में
आता है वह योग है।
निरंतर व लगातार एक ही दशा ,अवस्था अथवा स्थिति में रहना सम भाव है।
क्योकि मनुष्य संस्कारो (पिछले जन्म में किये गए कर्म के अनुसार इस जन्म में मनुष्य
के जो भाव बनते है) से बंधा है। जिस कारण जीवन भर वह प्रकृति जनित सत्व,रज ,तम
से प्रेरित हुआ शंकरमित होता रहता है। पुनर्जन्म के जैसे जैसे कर्म आते रहेंगे व्यक्ति उसी
तरह के गुण दोषो से प्रेरित रहेगा। यही कारण है की व्यक्ति ईर्ष्या ,द्वेष ,अहंकार ,काम ,क्रोध
आदि द्वंदो से जीवन भर घिरा रहता है। योगिक क्रियाओ द्वारा व्यक्ति प्रारम्भिक अवस्था से
चलकर योग की अंतिम अवस्था (समाधि )तक पहुचते हुऐ ,इन सब विकारो को दग्ध करते
हुए रज ,तम गुणों से उत्पन्न भावो को स्वभाव से ही छोड़ देता है। तथा समाधि की उच्च
अवस्था में तो साधक में सत्व गुण का भी अभाव हो जाता है।उस अवस्था में व्यक्ति सब
भावो को त्यागकर सिर्फ ईश्वर के भाव में ही रमा रहता है,लगा रहता है। उस दशा में
उसके भावो में कोई शंकरमण नहीं होता है।
और साधक निरंतर व लगातार उसी एक
सम भाव में रहता है।
इस सम भाव में रहना ही योग है।
(सूत नेति )
प्रत्येक कर्म को उसके फल की इच्छा के लिए न करके बिना किसी इच्छा भाव के सृष्टिकर्म
को आगे चलने के लिए करना ही गीता का उपदेश है
कर्म के फल में आशक्ति ही कर्म बंधन का कारण बनता है तथा ये कर्म बंधन ही मानव को बार बार पुनर्जन्म के चक्र में बाँधे रखता है
जिस कर्म के फल में मानव की अशक्ति ही नहीं होगी ,वो कर्म फल, बंधन का कारण ही नहीं
बनेगा। योग के द्वारा व्यक्ति में इतनी मानसिक व आध्यात्मिक जागरूकता आ जाती है।
वो इस मर्म को जान जाता है और प्रत्येक कर्म को इस प्रकार करता है की वो बार बार
आवागमन का कारण नहीं बनता (उसका बार बार पुनर्जन्म नहीं होता },अर्थात किसी भी कर्म
के फल से उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है।
इस प्रकार " प्रत्येक कर्म को करते हुए भी कर्म बंधन में न बढ़ने की कुशलता ही योग है "
"समत्वं योगः उच्यते "
"मानव को संभव में लाना ही योग है।"
अर्थात वह अवस्था ,साधन या स्थान जिसमे या जिसके द्वारा या जहां मनुष्य सम भाव में
आता है वह योग है।
निरंतर व लगातार एक ही दशा ,अवस्था अथवा स्थिति में रहना सम भाव है।
क्योकि मनुष्य संस्कारो (पिछले जन्म में किये गए कर्म के अनुसार इस जन्म में मनुष्य
के जो भाव बनते है) से बंधा है। जिस कारण जीवन भर वह प्रकृति जनित सत्व,रज ,तम
से प्रेरित हुआ शंकरमित होता रहता है। पुनर्जन्म के जैसे जैसे कर्म आते रहेंगे व्यक्ति उसी
तरह के गुण दोषो से प्रेरित रहेगा। यही कारण है की व्यक्ति ईर्ष्या ,द्वेष ,अहंकार ,काम ,क्रोध
आदि द्वंदो से जीवन भर घिरा रहता है। योगिक क्रियाओ द्वारा व्यक्ति प्रारम्भिक अवस्था से
चलकर योग की अंतिम अवस्था (समाधि )तक पहुचते हुऐ ,इन सब विकारो को दग्ध करते
हुए रज ,तम गुणों से उत्पन्न भावो को स्वभाव से ही छोड़ देता है। तथा समाधि की उच्च
अवस्था में तो साधक में सत्व गुण का भी अभाव हो जाता है।उस अवस्था में व्यक्ति सब
भावो को त्यागकर सिर्फ ईश्वर के भाव में ही रमा रहता है,लगा रहता है। उस दशा में
उसके भावो में कोई शंकरमण नहीं होता है।
और साधक निरंतर व लगातार उसी एक
सम भाव में रहता है।
इस सम भाव में रहना ही योग है।
(सूत नेति )
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