धोती क्रिया
घेरण्ड सहिता में धोती क्रिया के कई प्रकार दिए गए है।
अन्त्धोतिर्दन्तधोतिर्हद्धोतिर्मूलशोधनम्।
धौति चतुर्विद्या कृत्वा घटं कुर्वन्तु निर्मलम्।।
अन्त्धोतिर्दन्तधोतिर्हद्धोतिर्मूलशोधनम्।
धौति चतुर्विद्या कृत्वा घटं कुर्वन्तु निर्मलम्।।
जैसे: अन्तधौती,दन्तधौती,हद्दोती,मूलशोधन।
1 अन्तधौती : वातसारं वारिसारं वह्निसारं बहिष्कृतम्। घटस्य निर्मलार्थाय अन्तधौतिचश्तुर्विद्या
अन्तधौती में विभिन्न प्रकार से उदर का शोधन होता है।अन्तधौती के
अन्तधौती में विभिन्न प्रकार से उदर का शोधन होता है।अन्तधौती के
चार प्रकार वातसार,वारिसार,अग्निसार और बहिष्कृत है।
A वातसार धौति: " काकच्चुवदास्येन पिबेदायु शनै: शनै:। चालयेदुदरं पाश्चाद्वतर्मना रेचयेच्छनै:।। "
(काकी मुद्रा में)दोनों होठो को कौए की चोंच की तरह बनाकर धीरे धीरे वायु का पुरण करना।
उस वायु को उदार में चारो तरफ घुमाकर पुनः मुख द्वारा बहार निकल देना। यही वातसार धोती है Bवारिसार धौति : " आकणठं पूरयेद्वारी वक्त्रेण च पिबेच्छनेः । चलयेदुदरेणैव चोदराद्रेचयेदधः।। " इसे ही शंखप्रक्षालन भी कहते है। कंठ तक जल का पान करके कुछ देर उसे
उदर मेंघुमाकर अधोमार्ग से उसका रेचन कर देना।जल में हल्का सा नमक मिलाते है।तथा कुछ
उस वायु को उदार में चारो तरफ घुमाकर पुनः मुख द्वारा बहार निकल देना। यही वातसार धोती है Bवारिसार धौति : " आकणठं पूरयेद्वारी वक्त्रेण च पिबेच्छनेः । चलयेदुदरेणैव चोदराद्रेचयेदधः।। " इसे ही शंखप्रक्षालन भी कहते है। कंठ तक जल का पान करके कुछ देर उसे
उदर मेंघुमाकर अधोमार्ग से उसका रेचन कर देना।जल में हल्का सा नमक मिलाते है।तथा कुछ
आसन करके तब तक मल त्याग करते है जब तक की मलाशय से पानी आना शुरु न हो जाये।
C अग्निसार धौति : " नाभिग्रंथिम मेरुपृष्ठे शतवारच कारयेत्। " पूर्ण श्वाँस को बाहर निकालकर उदर को उस निश्वांस की स्थिति में ही अंदर
बाहर करना।योगियों के लिए नाभि को पृष्ठस्ठ मेरुपृष्ठ से सौ बार मिलाने को कहा है। D बहिष्कृत धौति : " काकीमुद्रां शोधयित्वा पूरयेदुदरं मरुत। धारयेदर्द्धयामंतु चालयेदधोवर्त्मना।। "
बाहर करना।योगियों के लिए नाभि को पृष्ठस्ठ मेरुपृष्ठ से सौ बार मिलाने को कहा है। D बहिष्कृत धौति : " काकीमुद्रां शोधयित्वा पूरयेदुदरं मरुत। धारयेदर्द्धयामंतु चालयेदधोवर्त्मना।। "
काकी मुद्रा में अर्थात दोनों होठो को कौए की चोंच की तरह बनाकर धीरे धीरे वायु पान करके उसे उदर
के भीतर आधे पहर तक धारण करके रखना और फिर अधोमार्ग(गुदामार्ग ) से बाहर
निकल देना। यह धौति क्रिया आज के परिदृश्य में करनी बड़ी कठिन है। यह क्रिया वास्तव में ही
योगियों की क्रिया है। इसे आम ग्रहस्थ नहीं कर सकता है। वाही साधक इसे कर सकता है जो
आधे पहर तक निश्वांस रोकने की धारण शक्ति को पूर्ण रूप से साध लेता है
के भीतर आधे पहर तक धारण करके रखना और फिर अधोमार्ग(गुदामार्ग ) से बाहर
निकल देना। यह धौति क्रिया आज के परिदृश्य में करनी बड़ी कठिन है। यह क्रिया वास्तव में ही
योगियों की क्रिया है। इसे आम ग्रहस्थ नहीं कर सकता है। वाही साधक इसे कर सकता है जो
आधे पहर तक निश्वांस रोकने की धारण शक्ति को पूर्ण रूप से साध लेता है
2 दन्तधौती : "दंतमूलं जिव्हामूलं रंध्रच् कर्ण युग्मयोः। कपालरन्ध्रं पचेते दन्तधौतिम विधीयते।।" दन्त धोती में दांत,जीभ,दोनों कानो के रंध्र व कपाल रंध्र का शोधन किया जाता है।
यह चार प्रकार की होती है
a दंतमूलधोती : "खादिरेण रसेनाथ मृत्तिकया च शुद्धया। माज्ज्रयेददन्तमूलच यावत् किल्विषमाहरेत्।।"
खैर के रस से या विशुद्ध मिटटी से दातो का प्रक्षालन करना।
b जिह्वाशोधनधौति : "अथातः सम्प्रवक्ष्यामी जिह्वाशोधनकारणम्। तर्जनी मध्यमानामा अंगुलित्रययोगतः।
वेशयेद गलमध्ये तू मार्जयेललम्बिकामलम्।।"
जिह्वा के मूल तक अंदर पहली तीन अंगुली (तर्जनी,मध्यमा,अनामिका )को
डालकरजिह्वा का मार्जन करना ही जिह्वा का शोधन है
ग्रंथो में जिह्वा का दोहन,चलन,छेदन कहा गया है जिसका विस्तार पूर्वक
वर्णन खेचरी मुद्रा में किया जायेगा।
c कर्णधौति : "तर्जन्यानामिकायोगांमार्जयेत् कर्णरन्ध्रयोः।" जल के द्वारा तर्जनी और अनामिका अंगुली से दोनों कानो का मार्जन करना
d कपालरंध्र धोती: " वृद्धागुष्ठेन दक्षेण मार्जयेद भालरंध्रकम्। " मुख के ऊपर के दातो से आगे कपाल के ऊपरी भाग से जो छिद्र ऊपर गया है ,
उसका अंगूठे से जल द्वारा प्रक्षालन करना
3 हद्दोती : यह धोती भी 3 प्रकार की कही गयी है।
a दण्ड धौति : " रम्भादण्ड हरिद्रादण्डं वेत्रदण्डं तथैव च ह्न्मध्ये चालयित्वा तू पुनः प्रत्याहरेच्छनै।।" यह भी आज के परिदृश्य में थोड़ी जटिल है। इसमें एक हाथ चार अंगुल लम्बा रम्भादण्ड
(केले के पत्तो के मध्य का मोटा भाग )या हरिद्रादण्ड (हल्दी के पत्तो के मध्य का दण्ड )ब्रहादातून
(वटवृक्ष में होने वाले वरोह एवं कच्चे सूत में मोम से लगाकर बना )जो प्रारम्भ में कनिष्क
ऊगली के तथा बाद में अँगूठे की बराबर हो ,को धीरे धीरे उदर में नाभि तक पहुँचाकर
उदर को अंदर बाहर करते हुए उस दण्ड को एक चक्र में घूमाते है। ध्यान रहे की इसे धीरे
धीरे ही उदर के अंदर डाले। गले से भीतर जाने पर यह स्वम् ही नाभि तक चला जाता है
b वमनधौती: "भोजनान्ते पिबद्वारी चाकण्ठं पूर्णितं सुधिः। उद्धर्वदृष्टिं क्ष्णं कृत्वा तज्जलं वमयेत् पुनः।।" हठयोगप्रदीपिका में इसे गजकरणी कहा गया है कंठ तक जल को ग्रहण करके कुछ देर सीधे
देखकर वमन द्वारा उसे बाहर निकल देना ही वमन धौति है
c वासधौति :
हठयोगप्रदीपिका में केवल इसी धौति क्रिया का वर्णन हैऔर वर्तमान में यही धौति
क्रिया चलन में है।इसमें चार अंगुल चौड़े कपड़े को धीरे धीरे निगलकर बाहर निकलना है।
4 मूलशोधन : "अपानक्रूरता तवद्यावन्मूलं न शोधयेत्। तस्मात सर्व प्रयत्त्नेन मूलशोधनमाचरेत्।।"
मध्यमा अंगुली से जल द्वारा बार बार ध्यान देकर प्रयत्नपूर्वक गुह्यप्रदेश का
प्रक्षालन करना ही मूलशोधन है
हठयोगप्रदीपिका में धोती क्रिया
गुरुपदिष्टमार्गेण सिक्तम वस्त्रम शनेग्रसेते ।
पुनः प्रत्यहरेच्चेतदुदितं धोतिकर्म तत ।।
हठयोगप्रदीपिका में वस्त्र धोती का ही विवरण है इसमें
कह गया है की चार अंगुल चोडा व पंद्रह हाथ लम्बा कपड़ा जल में भिगोकर गुरु के निर्देश
के अनुसार धीरे धीरे निगलकर पुनः धीरे धीरे उसे बाहर निकल देना।
यह चार प्रकार की होती है
a दंतमूलधोती : "खादिरेण रसेनाथ मृत्तिकया च शुद्धया। माज्ज्रयेददन्तमूलच यावत् किल्विषमाहरेत्।।"
खैर के रस से या विशुद्ध मिटटी से दातो का प्रक्षालन करना।
b जिह्वाशोधनधौति : "अथातः सम्प्रवक्ष्यामी जिह्वाशोधनकारणम्। तर्जनी मध्यमानामा अंगुलित्रययोगतः।
वेशयेद गलमध्ये तू मार्जयेललम्बिकामलम्।।"
जिह्वा के मूल तक अंदर पहली तीन अंगुली (तर्जनी,मध्यमा,अनामिका )को
डालकरजिह्वा का मार्जन करना ही जिह्वा का शोधन है
ग्रंथो में जिह्वा का दोहन,चलन,छेदन कहा गया है जिसका विस्तार पूर्वक
वर्णन खेचरी मुद्रा में किया जायेगा।
c कर्णधौति : "तर्जन्यानामिकायोगांमार्जयेत् कर्णरन्ध्रयोः।" जल के द्वारा तर्जनी और अनामिका अंगुली से दोनों कानो का मार्जन करना
d कपालरंध्र धोती: " वृद्धागुष्ठेन दक्षेण मार्जयेद भालरंध्रकम्। " मुख के ऊपर के दातो से आगे कपाल के ऊपरी भाग से जो छिद्र ऊपर गया है ,
उसका अंगूठे से जल द्वारा प्रक्षालन करना
3 हद्दोती : यह धोती भी 3 प्रकार की कही गयी है।
a दण्ड धौति : " रम्भादण्ड हरिद्रादण्डं वेत्रदण्डं तथैव च ह्न्मध्ये चालयित्वा तू पुनः प्रत्याहरेच्छनै।।" यह भी आज के परिदृश्य में थोड़ी जटिल है। इसमें एक हाथ चार अंगुल लम्बा रम्भादण्ड
(केले के पत्तो के मध्य का मोटा भाग )या हरिद्रादण्ड (हल्दी के पत्तो के मध्य का दण्ड )ब्रहादातून
(वटवृक्ष में होने वाले वरोह एवं कच्चे सूत में मोम से लगाकर बना )जो प्रारम्भ में कनिष्क
ऊगली के तथा बाद में अँगूठे की बराबर हो ,को धीरे धीरे उदर में नाभि तक पहुँचाकर
उदर को अंदर बाहर करते हुए उस दण्ड को एक चक्र में घूमाते है। ध्यान रहे की इसे धीरे
धीरे ही उदर के अंदर डाले। गले से भीतर जाने पर यह स्वम् ही नाभि तक चला जाता है
b वमनधौती: "भोजनान्ते पिबद्वारी चाकण्ठं पूर्णितं सुधिः। उद्धर्वदृष्टिं क्ष्णं कृत्वा तज्जलं वमयेत् पुनः।।" हठयोगप्रदीपिका में इसे गजकरणी कहा गया है कंठ तक जल को ग्रहण करके कुछ देर सीधे
देखकर वमन द्वारा उसे बाहर निकल देना ही वमन धौति है
c वासधौति :
हठयोगप्रदीपिका में केवल इसी धौति क्रिया का वर्णन हैऔर वर्तमान में यही धौति
क्रिया चलन में है।इसमें चार अंगुल चौड़े कपड़े को धीरे धीरे निगलकर बाहर निकलना है।
4 मूलशोधन : "अपानक्रूरता तवद्यावन्मूलं न शोधयेत्। तस्मात सर्व प्रयत्त्नेन मूलशोधनमाचरेत्।।"
मध्यमा अंगुली से जल द्वारा बार बार ध्यान देकर प्रयत्नपूर्वक गुह्यप्रदेश का
प्रक्षालन करना ही मूलशोधन है
हठयोगप्रदीपिका में धोती क्रिया
गुरुपदिष्टमार्गेण सिक्तम वस्त्रम शनेग्रसेते ।
पुनः प्रत्यहरेच्चेतदुदितं धोतिकर्म तत ।।
हठयोगप्रदीपिका में वस्त्र धोती का ही विवरण है इसमें
कह गया है की चार अंगुल चोडा व पंद्रह हाथ लम्बा कपड़ा जल में भिगोकर गुरु के निर्देश
के अनुसार धीरे धीरे निगलकर पुनः धीरे धीरे उसे बाहर निकल देना।
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