वीरासन
हठयोगप्रदीपिका में बैठकर किया जाने वाले आसनो में तीसरे स्थान पर वीरासन का वर्णन किया गया है।
विधिः
हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है
" एकं पादमथेकस्मिन् विन्यसेदुरुणि स्थिरम् ।
इतरस्मिस्तथा चोरुं वीरासनमितिरितम् ।। "
एक पाँव को दूसरे पैर की जंघा के निचे और दूसरे पैर को पहले पैर की जंघा पर रखना ही वीरासन है।
यह एक प्रकार का अर्धपद्मासन ही है। बड़ा ही आसान आसन है। यह आसन ध्यानात्मक आसन है।
लाभ :
इसके लाभ का कोई वर्णन हठयोगप्रदीपिका या घेरण्ड सहिंता में नहीं है। अनुभव के आधार पर ही इसके लाभ का वर्णन निम्न प्रकार है। यह आसन पैरो को लाभ प्रदान करता है। पैरो की नसों ,नाड़ीयों को शुद्ध करता है। पैरो के दर्द ,पैरो के भारीपन ,घुटनो के भारीपन,पिंडलियों का दर्द दूर करता है। जंघाओं की मांसपेशियों को मजबूत करता है। प्रारम्भिक अवस्था में जब साधक लम्बे समय तक ध्यान के लिए पद्मासन में नहीं बैठ सकता है तो उस अवस्था में वीरासन एक अच्छा आसन है। इसमें साधक प्रारम्भिक काल में भी लम्बे समय तक ध्यान के लिए बैठ सकता है।
इस आसन से गुप्तेंद्रियाँ नियंत्रित रहती है।
अप्पन वायु नियंत्रित होती है जिससे समस्त वायु विकार दूर होते है।
यह एक ध्यानात्मक आसन है इस कारण इसमें वे समस्त लाभ मिलते है,जो ध्यान से व्यक्ति को मिलते है। और ध्यान कितने प्रकार से व्यक्ति को लाभ देता है यह कहना संभव नहीं है। इसलिए इस आसन के सभी लाभ भी नहीं कहे जा सकते है। बस इतना ही कह सकते है की इससे अनेक लाभ मिलते है जैसे कमर को सीधा करता है,रीढ़ की हड्डी के विकार दूर होते है,गर्दन दर्द दूर होता है ,तथा थायरॉयड सम्बन्धी विकार दूर होते है
सावधानियाँ :
घुटनो का,पंजो का कोई आपरेशन हुआ हो तो यह आसन न करे।
नितम्बो में कोई दर्द हो तो आसन न करे।
नितम्बो में कोई दर्द हो तो आसन न करे।
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