गर्भावस्था में योग
आज फिर एक आसन को लिखना था,परन्तु आज कुछ और लिखने के लिए मन में भाव आया।इसलिए वह लिख रहा हु।
सृष्टि में मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई इस विषय में विद्वानो के अनेक मत है।सबकी अलग अलग अवधारणाएं है ,सबके अलग अलग सिद्धांत है और सबके अलग अलग तर्क है।वर्तमान विज्ञान के पास भी इसका संतोष जनक उत्तर नहीं है।
परन्तु अध्यात्म ऐसा रास्ता है जिस पर ब्रह्माण्ड के रहस्यों से जुड़े सभी प्रश्नो का उत्तर मिल जाता है।वेद भी उसी अध्यात्म से प्राप्त एक अनमोल रत्न है,जिसमे ब्रह्माण्ड के गोपनीय रहस्य छुपे है।मनुष्य की उत्पत्ति से संबंधित अनेक गोपनीय सूचनाये भी उनमे है।सृष्टिक्रम को आगे चलाने के लिए अनेक नियम,अनेक सिद्धांतो का वर्णन वेदो में किया गया है।वेद में ही वर्णित है कैसे धातु को प्रबल करना है ,कैसे गृहस्थ पति, पत्नी को संतान उत्पत्ति के लिए नियम पालन करना है।
इस विषय पर सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म तथ्यो को वेद में कहा गया है।उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए वेदो में अनेक नियम कहे गए है,जिनका पालन करके दम्पत्ति उत्तम संतान प्राप्त कर सकते है।
आज एक किसान अपनी फसल के लिए उत्तम बीज का चयन करता है विभिन्न प्रकार से उसे संवर्धित करता है। तो क्या वह सर्वोत्तम बीज जो ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ फसल की उत्पत्ति करता है,जो ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ बीज है,उस बीज को संवर्धित करने के लिए हम कुछ ना करे।
प्राचीन भारत में उसी बीज को ,उसी सर्वोत्तम धातु को संवर्धित करके उत्तम संतान उत्पत्ति के लिए सोलह संस्कार बताये गए है।ये सोलह संस्कार बालक के जन्म से पहले गर्भधारण की रात से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक होते है।हालांकि गर्भ से पहले भी पति पत्नी के अनेक कर्म होते है जो ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ट जिम्मेवारी का निर्वाह करने के लिए उन्हें मन,वचन,कर्म तथा शारीरिक,मानसिक व आध्यात्मिक रूप से तैयार करते है। आज का मेरा विषय वेदो की व्याख्या,व्यक्ति की उत्पत्ति या सोलह संस्कार नहीं है।
आज का मेरा विषय,गर्भावस्था में योग के द्वारा उत्तम गुणों वाली संतान की प्राप्ति है।
गर्भावस्था में योग -गर्भ की अवस्था में योग। यहाँ योग का अर्थ मात्र कुछ आसन ,प्राणायाम से नहीं है।
सर्वप्रथम उपर्युक्त शीर्षक की व्याख्या करता हु ,योग का अर्थ है उस आत्म तत्व को जो,
"नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो ना शोषितः मारुतः ।। "
न किसी शस्त्र से काटा जा सकता है। न किसी भी आग से उसे जलाया जा सकता है। जल का कोई भी स्वरूप उसके रूप को गला नहीं सकता और वायु भी उसे सुख नहीं सकती ,
को उस परमात्मा ,उस अन्तर्यामी से मिलाना है जो,
"ॐपूर्णमदः पूर्णंममिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिषयते ।।"
सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है जिससे यह जगत पूर्ण है क्योकि उस पूर्ण पुरषोत्तम से ही यह पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है उस पूर्ण ईश्वर से जगत के पूर्ण होने पर भी वह ईश्वर पूर्ण है। पूर्ण में से इस पूर्ण जगत को निकाल देने के बाद भी वह ईश्वर पूर्ण ही बच जाता है।
क्योकि गर्भावस्था में योग कहा है,अर्थात उस आत्म तत्व को जो गर्भ में आ चूका है,परम सत्ता से जोड़ना है।
उस गर्भस्थ आत्म तत्व को सर्वज्ञ,सर्वव्यापी,अनंत ऊर्जा से मिलाना है।
आशय यह है की गर्भ की स्थिति में स्त्री योग करती है तो जो संतान उसके गर्भ में पल रही है वह उस परम तत्व से जुड़ जाती है और असीम ऊर्जा प्राप्त करती है। और दिव्य गुणों के साथ जन्म लेती है।
गर्भधारण के बाद माता पिता को ,विशेषकर माता को किस प्रकार और कैसे योग करना चाहिए
वह निम्न प्रकार है।.
महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे है।
यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि
इनमे गर्भस्थ माता को यम,नियम का पालन सर्वप्रथम करना चाहिए उसके बाद आसान,प्रणायाम,ध्यान करे योग के अन्य अंग जैसे प्रत्याहार,धारणा और समाधि उच्च अवस्थाये है अतः उन्हें छोड़ दे।
यम पांच कहे गए है
"सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य "
अर्थात माता को सत्य बोलना चाहिए।सत्य वही है ,जैसा इंद्रियों ने देखा,सुना ,महसूस किया
वैसा ही बोल दिया।
अहिंसा अर्थात मन,वचन,कर्म से किसी भी जीव के प्रति हानि ना पहुचाना अहिंसा का पालन है।
अस्तेय -चोरी न करना अर्थात जिस वस्तु पर अधिकार नहीं है उसका उपयोग न करना।
अपरिग्रह: मनुष्य जन्म से खाली हाथ आया था इस भाव के साथ आश्यकता से अधिक वस्तुओ का संग्रह न करते हुए जीवन जीना।
ब्रह्मचर्य :मन,वचन,कर्म से वासना संबंधित कर्म न करना। मैथुन संतान उत्पत्ति का कारण है इस उदेश्य के लिए पति पत्नी का सम्पर्क करना उसके बाद संतान उत्पत्ति तक निर्वास काल में रहना।
वर्तमान समय में उपर्युक्त पांच यम का पालन करना लगभग असम्भव है और इनमे भी पहला(सत्य ) व अंतिम (ब्रह्मचर्य )का पालन करना वर्तमान परिदृश्य में करना बहुत मुश्किल है।परन्तु अगर माता पिता विशेषकर माता चाहे तो संभव है।
बस उसके लिए दिनचर्या को नियमित करे। जैसे -
गर्भवती महिला 9 माह तक अधिक जनसम्पर्क ना करे।अपनी दिनचर्या को जागरूकता के साथ अपने कार्यो में वितरित करे।जैसे
सत्य शास्त्रो गीता,रामचरितमानस,वेद को पढ़ना,व उनकी चर्चा करना।
घर की जो बड़ी महिलाये है,उनके सम्पर्क में अधिक रहे।
किसी से अधिक तर्क वितर्क न करे। और अपने घर ही अधिकतर रहे। अगर कामकाजी महिला है तो वह अपने ऑफिस से लम्बी छुट्टी ले ले। ऐसा करने से लगभग पहला यम (सत्य, झूठ न बोलना)
का पालन हो जाता है।
दूसरे तीसरे और चौथे यम का थोड़ा पालन स्त्री स्वभाव से ही करती है। वह जीव के प्रति उदार होती है ,चोरी को भी निंदनीय कर्म समझती है और माया अर्थात धन को भी अधिक इक्कठा करने पर भी उसका ध्यान नहीं होता है और अगर होता भी है तो जागरूकता से इन विकारो को नियंत्रित कर सकते है या कर सकती है।
अंतिम यम ब्रह्मचर्य ,आज के परिदृश्य में बड़ा कठिन है।परन्तु परम आवश्यक है।
वर्तमान में वह पति पत्नी हास्य के पात्र है जो ब्रह्मचर्य की बात करते है। वह मुर्ख है जो ब्रह्मचर्य के बारे में सोचते है।और अगर कोई सोचता भी है तो वो पति हो या पत्नी,उसके पाटर्नर के विचार उससे भिन्न होते है। सामान्यतः यह माना जाता है की गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य का कोई स्थान नहीं है। ये तो सन्यासिनो का अंग है परन्तु ऐसा नहीं है।
अगर मानसिक जागरूकता से सोचे तो इसका महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा।
समाज में होने वाली विभिन्न व्यभिचार की घटनाये शायद माता पिता की गर्भ के समय अनियंत्रित वासनाएं है जो बिना आत्मनियंत्रण के पति पत्नी के सम्पर्क से उत्पन्न होती है।
गर्भ के समय में माता जैसे विचार करती है।जैसे मनन करती है ,जैसा चिंतन करती है और जैसा कर्म करती
है,उसका पूर्ण प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। वे सूक्ष्म वासनाएं शिशु का आकार बढ़ने पर बढ़ती है। तो अगर भविष्य में उस संतान द्वारा की गयी किसी घटना से माता पिता शर्मिंदा होते है या सामाजिक पतन होता है तो उस बीज के दाता हम स्वयं ही होते है। जिसके वृक्ष से फल के रूप में हमें वह शर्मिंदगी मिली है।
ब्रह्मचर्य पालन में अगर पत्नी ,पति से अधिक जागरूक है तो पत्नी के लिए ब्रह्मचर्य पालन में आसानी रहती है
और इसके विपरीत हो जाये ,पति अधिक जागरूक हो तो और अधिक समस्या सामने आती है।
अब इस यम का आज के परिदृश्य में कैसे पालन करे उसके लिए कुछ ध्यान रखने वाली बाते है। जैसे
पति,पत्नी दोनों को शास्त्रो का पठन पाठन करना चाहिए।
दोनों को सुबह शाम एक साथ बैठकर साधना करनी चाहिए या ॐ का जाप करना चाहिए।
दोनों को एकांतवास से नो माह तक बचना चाहिए।
दोनों को आपस में ईश्वर के स्वरूप,उनके गुणों की चर्चा करनी चाहिए।
पत्नी को पति से अलग दूसरे कमरे में बड़ी औरतो के साथ सोना चाहिए।
अगर उपरोक्त नियम का पालन करने में युवा दंपति असमर्थ हो असहज हो तो उन्हें एक ही रूम में अलग अलग बिस्तर पर आध्यात्मिक वर्तालाप करते हुए सोना चाहिए।
अगर उपरोक्त नियम का भी पालन करने में दंपति सहज न हो तो एक दूसरे से शारीरिक प्रेम
छोड़कर,आत्मिक प्रेम के भाव से शरीर को भूलकर आत्मिक भाव के साथ एक बिस्तर पर लेटना चाहिए।
अगर इस नियम का पालन करने में भी पति पत्नी खुद को सक्षम नहीं समझते जो की वो है और एक दूसरे से सम्पर्क करते है तो उनके लिये एक अंतिम रास्ता ओर है की उन पलो में पति पत्नी और विशेषकर पत्नी पति से सम्पर्क के समय अपने विचारो पर,अपने भावो पर,कर्म के साथ होने वाली आसक्ति पर नियंत्रण रखते हुए इस भाव से की इस सृष्टि में सब कुछ ईश्वर अधीन है,अतःसम्पूर्ण कर्म भी ईश्वर आज्ञा के अधीन है,अगर इन पलो में सम्पर्क की पति की इच्छा या मेरे मन में भाव है तो वह भी ईश्वर आज्ञानुसार ही है ,आज्ञा के बिना नहीं है।अतः जब ईश्वर की आज्ञा है तो उसमे मेरा कैसा भाव। ये भाव मन से मनन करते हुए पति पत्नी वासना से
भरे,आसक्ति से भरे विचारो को त्यागकर बिना किसी भाव के कर्म करे अर्थात एक दूसरे को समर्पण करे।
अगर इस अंतिम यम में माता इस भाव का पालन कर ले,तो वह स्वम जीवन भर उसका प्रभाव उस शिशु में देखेगी।
योग में दूसरे स्थान पर नियम का वर्णन है ये नियम भी पांच ही कहे गए है
"तपशौचसंतोषस्वाध्यायईश्वरप्राणिधान "
सामान्यतः सभी नियमो का पालन स्त्री सहजता से कर लेती है अगर आज के परिदृश्य में कोई समस्या हो तो उसका समाधान निम्न प्रकार है।
तप : पहला नियम तप कहा गया है,अर्थात सर्दी गर्मी,सुख दुःख,भूख प्यास,लाभ हानि को सहते हुए सम अवस्था में रहते हुए कठोर व्रत धारण करना ही तप है।इस प्रकार का यह नियम योगियों के लिए है। गर्भवती स्त्री के लिये इसका स्वरूप अवस्थानुसार समझना चाहिए।जैसे गर्भवती महिला को अगर डॉक्टर का बैड रेस्ट का निर्देश न हो तो घर के हल्के काम खुद करे रोज सुबह शाम एक किलोमीटर तक टहले। हल्का व कम लेकिन पौष्टिकता से भरा खाना ले।
शौच : शारीरिक व मानसिक शुद्दि ही शौच है।प्रतिदिन नित्यकर्म करते हुए (अर्थात स्नान आदि करना चाहिए) मन को गलत विचारो से हटाकर भाव शुद्ध रखना चाहिए। इस नियम को भी स्त्री स्वभाव से ही बहुत हद तक कर ही लेती है।
संतोष : जिस परिस्थिति में भी ईश्वर हमे रख रहा है उसे ईश्वर की इच्छा मानते हुए,जो मिल रहा है उसे प्रसन्नता से स्वीकार करते हुए खुश रहना और अपने कर्तव्य कर्मो को करना ही संतोष है।
स्वाध्याय : शास्त्रो का मनन,पठन,पाठन,अध्ययन,अध्यापन करना ही स्वाध्याय है।अतःगर्भवती स्त्री को
अपनी दिनचर्या को इस तरह से रखना चाहिए की वह गीता,रामायण,रामचरितमानस,उपनिषद,वेद और पुराणो का नियमित अध्ययन कर सके।
ईश्वरप्राणिधान ; गर्भवती स्त्री को अपने सम्पूर्ण कर्मो को ईश्वर को समर्पित करते हुए करना चाहिए ,अपने प्रत्येक कर्म में जागरूकता के साथ ईश्वरीय आज्ञा को देखना चाहिए,अपने सब पदार्थ,सब वस्तुऐ ईश्वर को समर्पित करते हुए उनका उपयोग करना चाहिए और चेतना के साथ,सजगता के साथ उन भावो को मन में रखना चाहिए।यही ईश्वर प्रणिधान है।
उपरोक्त यम नियम को सभी को अपने जीवन में अपनाना चाहिए परन्तु आज आम गृहस्थ के लिए यह पूर्ण संभव नहीं है।अतःगर्भवती स्त्री व उसके पति को कम से कम नो माह तक इन यम,नियम का पालन करना चाहिए। उपरोक्त यम,नियम का जितना न्यून या अधिक पालन होगा ,संताब पर इनका उतना ही न्यून या अधिक प्रभाव होगा।
आसन :
अब योग के तीसरे अंग में हम उन आसन का वर्णन करेंगे जिनको गर्भ की अवस्था में स्त्री कर सकती है। गर्भ की अवस्था में शरीर के अंगो को,नसों को,नाड़ियो को क्रियाशील करने के लिए उन्हें अधिक प्राण ऊर्जा देने के लिए हम आसन करते है।गर्भावस्था में आसन करते हुए बहुत ही सतर्कता की आश्यकता होती है।थोड़ी असावधानी भी बड़ी समस्या उत्त्पन्न कर सकती है।अतः गर्भ की अवस्था में महिला को कुछ चुने हुए ही आसन करने चाहिए। जो निम्न प्रकार है
खड़े होकर :
सूक्ष्म आसन
ताड़ासन
वृक्षासन
उत्त्कट आसान (कुर्सी आसन )
त्रिकोणासन (धीरे से )
कोनासन (धीरे से )
पीठ के बल लेटकर :
अर्ध शलभासन
मरकट आसन
शवासन
बैठकर :
पैरो को हल्का करना
भद्रासन
तितली आसन
अर्धमस्येन्द्रसन
उपरोक्त सभी आसन एक एक बार करने चाहिए और प्रत्येक आसन के बाद पर्याप्त विश्राम करना चाहिए। अगर किसी आसन में कोई दिक्कत महसूस हो तो उस आसन को न करे। विशेष तो यह है की किसी योगाचर्य के निर्देशन में आसन करे।
प्राणायाम :
प्राणायाम अर्थात प्राण को,श्वांस को,जीवन को आयाम देना,उचाई देना। जब गर्भवती स्त्री प्राणायाम करती है तो वह गर्भस्थ शिशु के प्राण को भी आयाम देती है।अर्थात माता जब प्राणायाम करे तो अपने शिशु पर ध्यान लगाते हुए उस प्राण ऊर्जा को मानसिक भाव के साथ उस गर्भस्थ शिशु तक पहुचाऐ।
गर्भवती स्त्री को निम्न प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
भस्त्रिका (बहुत धीरे धीरे ) 10 से 15 श्वांस
अनुलोम विलोम (धीरे धीरे लम्बे गहरे श्वांस ) 5 से 10 मिनट
भ्रामरी 10 मिनट
ॐ का उच्चारण 30 मिनट
नोट : किसी भी प्राणायाम या आसन को गर्भवती स्त्री अपनी आश्यकता अनुसार कम या ज्यादा कर सकती है।
ध्यान :ध्यान के बारे में तो सामान्य जानकारी बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।और बहुत गहराई से इस विषय पर चर्चा करना आज का विषय भी नहीं है।आवश्यकता अनुसार वर्णन करता हूँ।गर्भवती स्त्री को सुबह शाम पूर्ण शांत चित्त होकर नियमित समय पर व नियमित स्थान पर अपने गर्भस्थ शिशु से संवाद स्थापित करना है,लगातार उससे मानसिक बात करनी है। और ॐ का लम्बा मानसिक उच्चारण करते हुए शिशु को सुनाना है।
योग के आगे के अंग योगियों के विषय है।गर्भवती महिला उपरोक्त योगांगो को ही उत्तम संतान प्राप्ति के साधान के रूप में अपनाये
सृष्टि में मनुष्य की उत्पत्ति कैसे हुई इस विषय में विद्वानो के अनेक मत है।सबकी अलग अलग अवधारणाएं है ,सबके अलग अलग सिद्धांत है और सबके अलग अलग तर्क है।वर्तमान विज्ञान के पास भी इसका संतोष जनक उत्तर नहीं है।
परन्तु अध्यात्म ऐसा रास्ता है जिस पर ब्रह्माण्ड के रहस्यों से जुड़े सभी प्रश्नो का उत्तर मिल जाता है।वेद भी उसी अध्यात्म से प्राप्त एक अनमोल रत्न है,जिसमे ब्रह्माण्ड के गोपनीय रहस्य छुपे है।मनुष्य की उत्पत्ति से संबंधित अनेक गोपनीय सूचनाये भी उनमे है।सृष्टिक्रम को आगे चलाने के लिए अनेक नियम,अनेक सिद्धांतो का वर्णन वेदो में किया गया है।वेद में ही वर्णित है कैसे धातु को प्रबल करना है ,कैसे गृहस्थ पति, पत्नी को संतान उत्पत्ति के लिए नियम पालन करना है।
इस विषय पर सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म तथ्यो को वेद में कहा गया है।उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए वेदो में अनेक नियम कहे गए है,जिनका पालन करके दम्पत्ति उत्तम संतान प्राप्त कर सकते है।
आज एक किसान अपनी फसल के लिए उत्तम बीज का चयन करता है विभिन्न प्रकार से उसे संवर्धित करता है। तो क्या वह सर्वोत्तम बीज जो ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ फसल की उत्पत्ति करता है,जो ब्रह्माण्ड का सर्वश्रेष्ठ बीज है,उस बीज को संवर्धित करने के लिए हम कुछ ना करे।
प्राचीन भारत में उसी बीज को ,उसी सर्वोत्तम धातु को संवर्धित करके उत्तम संतान उत्पत्ति के लिए सोलह संस्कार बताये गए है।ये सोलह संस्कार बालक के जन्म से पहले गर्भधारण की रात से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक होते है।हालांकि गर्भ से पहले भी पति पत्नी के अनेक कर्म होते है जो ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ट जिम्मेवारी का निर्वाह करने के लिए उन्हें मन,वचन,कर्म तथा शारीरिक,मानसिक व आध्यात्मिक रूप से तैयार करते है। आज का मेरा विषय वेदो की व्याख्या,व्यक्ति की उत्पत्ति या सोलह संस्कार नहीं है।
आज का मेरा विषय,गर्भावस्था में योग के द्वारा उत्तम गुणों वाली संतान की प्राप्ति है।
गर्भावस्था में योग -गर्भ की अवस्था में योग। यहाँ योग का अर्थ मात्र कुछ आसन ,प्राणायाम से नहीं है।
सर्वप्रथम उपर्युक्त शीर्षक की व्याख्या करता हु ,योग का अर्थ है उस आत्म तत्व को जो,
"नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो ना शोषितः मारुतः ।। "
न किसी शस्त्र से काटा जा सकता है। न किसी भी आग से उसे जलाया जा सकता है। जल का कोई भी स्वरूप उसके रूप को गला नहीं सकता और वायु भी उसे सुख नहीं सकती ,
को उस परमात्मा ,उस अन्तर्यामी से मिलाना है जो,
"ॐपूर्णमदः पूर्णंममिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिषयते ।।"
सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है जिससे यह जगत पूर्ण है क्योकि उस पूर्ण पुरषोत्तम से ही यह पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है उस पूर्ण ईश्वर से जगत के पूर्ण होने पर भी वह ईश्वर पूर्ण है। पूर्ण में से इस पूर्ण जगत को निकाल देने के बाद भी वह ईश्वर पूर्ण ही बच जाता है।
क्योकि गर्भावस्था में योग कहा है,अर्थात उस आत्म तत्व को जो गर्भ में आ चूका है,परम सत्ता से जोड़ना है।
उस गर्भस्थ आत्म तत्व को सर्वज्ञ,सर्वव्यापी,अनंत ऊर्जा से मिलाना है।
आशय यह है की गर्भ की स्थिति में स्त्री योग करती है तो जो संतान उसके गर्भ में पल रही है वह उस परम तत्व से जुड़ जाती है और असीम ऊर्जा प्राप्त करती है। और दिव्य गुणों के साथ जन्म लेती है।
गर्भधारण के बाद माता पिता को ,विशेषकर माता को किस प्रकार और कैसे योग करना चाहिए
वह निम्न प्रकार है।.
महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे है।
यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान,समाधि
इनमे गर्भस्थ माता को यम,नियम का पालन सर्वप्रथम करना चाहिए उसके बाद आसान,प्रणायाम,ध्यान करे योग के अन्य अंग जैसे प्रत्याहार,धारणा और समाधि उच्च अवस्थाये है अतः उन्हें छोड़ दे।
यम पांच कहे गए है
"सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,और ब्रह्मचर्य "
अर्थात माता को सत्य बोलना चाहिए।सत्य वही है ,जैसा इंद्रियों ने देखा,सुना ,महसूस किया
वैसा ही बोल दिया।
अहिंसा अर्थात मन,वचन,कर्म से किसी भी जीव के प्रति हानि ना पहुचाना अहिंसा का पालन है।
अस्तेय -चोरी न करना अर्थात जिस वस्तु पर अधिकार नहीं है उसका उपयोग न करना।
अपरिग्रह: मनुष्य जन्म से खाली हाथ आया था इस भाव के साथ आश्यकता से अधिक वस्तुओ का संग्रह न करते हुए जीवन जीना।
ब्रह्मचर्य :मन,वचन,कर्म से वासना संबंधित कर्म न करना। मैथुन संतान उत्पत्ति का कारण है इस उदेश्य के लिए पति पत्नी का सम्पर्क करना उसके बाद संतान उत्पत्ति तक निर्वास काल में रहना।
वर्तमान समय में उपर्युक्त पांच यम का पालन करना लगभग असम्भव है और इनमे भी पहला(सत्य ) व अंतिम (ब्रह्मचर्य )का पालन करना वर्तमान परिदृश्य में करना बहुत मुश्किल है।परन्तु अगर माता पिता विशेषकर माता चाहे तो संभव है।
बस उसके लिए दिनचर्या को नियमित करे। जैसे -
गर्भवती महिला 9 माह तक अधिक जनसम्पर्क ना करे।अपनी दिनचर्या को जागरूकता के साथ अपने कार्यो में वितरित करे।जैसे
सत्य शास्त्रो गीता,रामचरितमानस,वेद को पढ़ना,व उनकी चर्चा करना।
घर की जो बड़ी महिलाये है,उनके सम्पर्क में अधिक रहे।
किसी से अधिक तर्क वितर्क न करे। और अपने घर ही अधिकतर रहे। अगर कामकाजी महिला है तो वह अपने ऑफिस से लम्बी छुट्टी ले ले। ऐसा करने से लगभग पहला यम (सत्य, झूठ न बोलना)
का पालन हो जाता है।
दूसरे तीसरे और चौथे यम का थोड़ा पालन स्त्री स्वभाव से ही करती है। वह जीव के प्रति उदार होती है ,चोरी को भी निंदनीय कर्म समझती है और माया अर्थात धन को भी अधिक इक्कठा करने पर भी उसका ध्यान नहीं होता है और अगर होता भी है तो जागरूकता से इन विकारो को नियंत्रित कर सकते है या कर सकती है।
अंतिम यम ब्रह्मचर्य ,आज के परिदृश्य में बड़ा कठिन है।परन्तु परम आवश्यक है।
वर्तमान में वह पति पत्नी हास्य के पात्र है जो ब्रह्मचर्य की बात करते है। वह मुर्ख है जो ब्रह्मचर्य के बारे में सोचते है।और अगर कोई सोचता भी है तो वो पति हो या पत्नी,उसके पाटर्नर के विचार उससे भिन्न होते है। सामान्यतः यह माना जाता है की गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य का कोई स्थान नहीं है। ये तो सन्यासिनो का अंग है परन्तु ऐसा नहीं है।
अगर मानसिक जागरूकता से सोचे तो इसका महत्त्व स्पष्ट हो जायेगा।
समाज में होने वाली विभिन्न व्यभिचार की घटनाये शायद माता पिता की गर्भ के समय अनियंत्रित वासनाएं है जो बिना आत्मनियंत्रण के पति पत्नी के सम्पर्क से उत्पन्न होती है।
गर्भ के समय में माता जैसे विचार करती है।जैसे मनन करती है ,जैसा चिंतन करती है और जैसा कर्म करती
है,उसका पूर्ण प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। वे सूक्ष्म वासनाएं शिशु का आकार बढ़ने पर बढ़ती है। तो अगर भविष्य में उस संतान द्वारा की गयी किसी घटना से माता पिता शर्मिंदा होते है या सामाजिक पतन होता है तो उस बीज के दाता हम स्वयं ही होते है। जिसके वृक्ष से फल के रूप में हमें वह शर्मिंदगी मिली है।
ब्रह्मचर्य पालन में अगर पत्नी ,पति से अधिक जागरूक है तो पत्नी के लिए ब्रह्मचर्य पालन में आसानी रहती है
और इसके विपरीत हो जाये ,पति अधिक जागरूक हो तो और अधिक समस्या सामने आती है।
अब इस यम का आज के परिदृश्य में कैसे पालन करे उसके लिए कुछ ध्यान रखने वाली बाते है। जैसे
पति,पत्नी दोनों को शास्त्रो का पठन पाठन करना चाहिए।
दोनों को सुबह शाम एक साथ बैठकर साधना करनी चाहिए या ॐ का जाप करना चाहिए।
दोनों को एकांतवास से नो माह तक बचना चाहिए।
दोनों को आपस में ईश्वर के स्वरूप,उनके गुणों की चर्चा करनी चाहिए।
पत्नी को पति से अलग दूसरे कमरे में बड़ी औरतो के साथ सोना चाहिए।
अगर उपरोक्त नियम का पालन करने में युवा दंपति असमर्थ हो असहज हो तो उन्हें एक ही रूम में अलग अलग बिस्तर पर आध्यात्मिक वर्तालाप करते हुए सोना चाहिए।
अगर उपरोक्त नियम का भी पालन करने में दंपति सहज न हो तो एक दूसरे से शारीरिक प्रेम
छोड़कर,आत्मिक प्रेम के भाव से शरीर को भूलकर आत्मिक भाव के साथ एक बिस्तर पर लेटना चाहिए।
अगर इस नियम का पालन करने में भी पति पत्नी खुद को सक्षम नहीं समझते जो की वो है और एक दूसरे से सम्पर्क करते है तो उनके लिये एक अंतिम रास्ता ओर है की उन पलो में पति पत्नी और विशेषकर पत्नी पति से सम्पर्क के समय अपने विचारो पर,अपने भावो पर,कर्म के साथ होने वाली आसक्ति पर नियंत्रण रखते हुए इस भाव से की इस सृष्टि में सब कुछ ईश्वर अधीन है,अतःसम्पूर्ण कर्म भी ईश्वर आज्ञा के अधीन है,अगर इन पलो में सम्पर्क की पति की इच्छा या मेरे मन में भाव है तो वह भी ईश्वर आज्ञानुसार ही है ,आज्ञा के बिना नहीं है।अतः जब ईश्वर की आज्ञा है तो उसमे मेरा कैसा भाव। ये भाव मन से मनन करते हुए पति पत्नी वासना से
भरे,आसक्ति से भरे विचारो को त्यागकर बिना किसी भाव के कर्म करे अर्थात एक दूसरे को समर्पण करे।
अगर इस अंतिम यम में माता इस भाव का पालन कर ले,तो वह स्वम जीवन भर उसका प्रभाव उस शिशु में देखेगी।
योग में दूसरे स्थान पर नियम का वर्णन है ये नियम भी पांच ही कहे गए है
"तपशौचसंतोषस्वाध्यायईश्वरप्राणिधान "
सामान्यतः सभी नियमो का पालन स्त्री सहजता से कर लेती है अगर आज के परिदृश्य में कोई समस्या हो तो उसका समाधान निम्न प्रकार है।
तप : पहला नियम तप कहा गया है,अर्थात सर्दी गर्मी,सुख दुःख,भूख प्यास,लाभ हानि को सहते हुए सम अवस्था में रहते हुए कठोर व्रत धारण करना ही तप है।इस प्रकार का यह नियम योगियों के लिए है। गर्भवती स्त्री के लिये इसका स्वरूप अवस्थानुसार समझना चाहिए।जैसे गर्भवती महिला को अगर डॉक्टर का बैड रेस्ट का निर्देश न हो तो घर के हल्के काम खुद करे रोज सुबह शाम एक किलोमीटर तक टहले। हल्का व कम लेकिन पौष्टिकता से भरा खाना ले।
शौच : शारीरिक व मानसिक शुद्दि ही शौच है।प्रतिदिन नित्यकर्म करते हुए (अर्थात स्नान आदि करना चाहिए) मन को गलत विचारो से हटाकर भाव शुद्ध रखना चाहिए। इस नियम को भी स्त्री स्वभाव से ही बहुत हद तक कर ही लेती है।
संतोष : जिस परिस्थिति में भी ईश्वर हमे रख रहा है उसे ईश्वर की इच्छा मानते हुए,जो मिल रहा है उसे प्रसन्नता से स्वीकार करते हुए खुश रहना और अपने कर्तव्य कर्मो को करना ही संतोष है।
स्वाध्याय : शास्त्रो का मनन,पठन,पाठन,अध्ययन,अध्यापन करना ही स्वाध्याय है।अतःगर्भवती स्त्री को
अपनी दिनचर्या को इस तरह से रखना चाहिए की वह गीता,रामायण,रामचरितमानस,उपनिषद,वेद और पुराणो का नियमित अध्ययन कर सके।
ईश्वरप्राणिधान ; गर्भवती स्त्री को अपने सम्पूर्ण कर्मो को ईश्वर को समर्पित करते हुए करना चाहिए ,अपने प्रत्येक कर्म में जागरूकता के साथ ईश्वरीय आज्ञा को देखना चाहिए,अपने सब पदार्थ,सब वस्तुऐ ईश्वर को समर्पित करते हुए उनका उपयोग करना चाहिए और चेतना के साथ,सजगता के साथ उन भावो को मन में रखना चाहिए।यही ईश्वर प्रणिधान है।
उपरोक्त यम नियम को सभी को अपने जीवन में अपनाना चाहिए परन्तु आज आम गृहस्थ के लिए यह पूर्ण संभव नहीं है।अतःगर्भवती स्त्री व उसके पति को कम से कम नो माह तक इन यम,नियम का पालन करना चाहिए। उपरोक्त यम,नियम का जितना न्यून या अधिक पालन होगा ,संताब पर इनका उतना ही न्यून या अधिक प्रभाव होगा।
आसन :
अब योग के तीसरे अंग में हम उन आसन का वर्णन करेंगे जिनको गर्भ की अवस्था में स्त्री कर सकती है। गर्भ की अवस्था में शरीर के अंगो को,नसों को,नाड़ियो को क्रियाशील करने के लिए उन्हें अधिक प्राण ऊर्जा देने के लिए हम आसन करते है।गर्भावस्था में आसन करते हुए बहुत ही सतर्कता की आश्यकता होती है।थोड़ी असावधानी भी बड़ी समस्या उत्त्पन्न कर सकती है।अतः गर्भ की अवस्था में महिला को कुछ चुने हुए ही आसन करने चाहिए। जो निम्न प्रकार है
खड़े होकर :
सूक्ष्म आसन
ताड़ासन
वृक्षासन
उत्त्कट आसान (कुर्सी आसन )
त्रिकोणासन (धीरे से )
कोनासन (धीरे से )
पीठ के बल लेटकर :
अर्ध शलभासन
मरकट आसन
शवासन
बैठकर :
पैरो को हल्का करना
भद्रासन
तितली आसन
अर्धमस्येन्द्रसन
उपरोक्त सभी आसन एक एक बार करने चाहिए और प्रत्येक आसन के बाद पर्याप्त विश्राम करना चाहिए। अगर किसी आसन में कोई दिक्कत महसूस हो तो उस आसन को न करे। विशेष तो यह है की किसी योगाचर्य के निर्देशन में आसन करे।
प्राणायाम :
प्राणायाम अर्थात प्राण को,श्वांस को,जीवन को आयाम देना,उचाई देना। जब गर्भवती स्त्री प्राणायाम करती है तो वह गर्भस्थ शिशु के प्राण को भी आयाम देती है।अर्थात माता जब प्राणायाम करे तो अपने शिशु पर ध्यान लगाते हुए उस प्राण ऊर्जा को मानसिक भाव के साथ उस गर्भस्थ शिशु तक पहुचाऐ।
गर्भवती स्त्री को निम्न प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।
भस्त्रिका (बहुत धीरे धीरे ) 10 से 15 श्वांस
अनुलोम विलोम (धीरे धीरे लम्बे गहरे श्वांस ) 5 से 10 मिनट
भ्रामरी 10 मिनट
ॐ का उच्चारण 30 मिनट
नोट : किसी भी प्राणायाम या आसन को गर्भवती स्त्री अपनी आश्यकता अनुसार कम या ज्यादा कर सकती है।
ध्यान :ध्यान के बारे में तो सामान्य जानकारी बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।और बहुत गहराई से इस विषय पर चर्चा करना आज का विषय भी नहीं है।आवश्यकता अनुसार वर्णन करता हूँ।गर्भवती स्त्री को सुबह शाम पूर्ण शांत चित्त होकर नियमित समय पर व नियमित स्थान पर अपने गर्भस्थ शिशु से संवाद स्थापित करना है,लगातार उससे मानसिक बात करनी है। और ॐ का लम्बा मानसिक उच्चारण करते हुए शिशु को सुनाना है।
योग के आगे के अंग योगियों के विषय है।गर्भवती महिला उपरोक्त योगांगो को ही उत्तम संतान प्राप्ति के साधान के रूप में अपनाये
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