9 Feb 2016

बन्ध ( योगिक मुद्राएं )

बन्ध 
 योग में  बन्धो का विशेष  महत्व है। हठयोग के दोनों ग्रंथो में घेरण्ड सहिंता व हठयोग प्रदीपिका में बन्धो का वर्णन मुद्राओं के अंतर्गत है। परन्तु हम इनका अलग से वर्णन कर रहे हैं,क्योकि  ये बंद मुद्राएं ही नहीं हैं, इनका उपयोग कुम्भक प्राणायाम के अंतर्गत भी होता है।  

परिचय : वायु को रोकने के लिए हम श्वांस को अन्दर या बाहर जिस प्रकार से रोकते हैं, उसे  बन्ध कहते है। क्योकि  शरीर के विभिन्न तीन हिस्सों से वायु को रोका जाता है। जिस कारण बन्ध तीन प्रकार के हैं।  उड्डीयान बन्ध , जलंधर बन्ध , मूल बन्ध 

उड्डीयान बन्ध: तीनो बन्धो  में यह बन्ध सबसे महत्व पूर्ण है। यह उदर के संकुचन पर लगता है।  
विधि : हठयोग प्रदीपिका में कहा गया  कि -
                                        "  उदरे पश्चिम तानं नाभेरूर्ध्व च कारयेत्। "
उदर को नाभि के ऊपर, नीचे  और पीछे की तरफ खींचे।  यही उड्डयन बन्ध है। यह उड्डयान बन्ध मृत्यु रुपी हाथी के लिए सिंह के समान  है।  
घेरण्ड सहिंता में भी यही विधि कही गयी है।  
कहने का अर्थ यह है कि  पूर्ण श्वांस बाहर निकाल कर पेट को ऊपर की तरफ तथा साथ ही पीठ की तरफ खींच कर यथा संभव जितनी जितनी देर हो उसी अवस्था में रुकते हैं।  
 लाभ : 
उड्डीयान बन्ध के लाभों का वर्णन दोनों ग्रन्थों में बड़े विस्तार से कहा गया है। उड्डीयान बन्ध के शारीरिक लाभ का अधिक वर्णन नहीं है इसके आध्यात्मिक लाभ ही कहे गए हैं। परंतु ऐसा नहीं है की इसके शारीरिक लाभ नहीं हैं।
इसके संबंध में हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है कि –
                       "बद्धो येन सुषुम्नायां प्राणस्तुड्डीयते यतः "
1       उड्डीयान बन्ध द्वारा सुषुम्ना में निरुद्ध प्राण को ऊपर की तरफ उठाया जाता है
                                                     "उड्डीयान तू सहजं गुरूणा कथितं यथा। 
                                                        अभ्यसेत्  सततं यस्तु वृद्धोअपि तरुणायते "
                  गुरु के द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण कर के यदि कोई व्रद्ध भी उड्डीयान बन्ध का  सदा अभ्यास करता है तो वो भी युवक के समान हो जाता है।
3                                                                    "षण्माससम्भ्यसेन्मृत्यु  जयत्येवं न संशयः। "
   इसका अभ्यास करने से साधक छह मास मे मृत्यु को जीत लेता है। इसमें कोई संशय नहीं है।   
                                                      " सर्वेषामेव बन्धानमुत्तमो ह्युडडीयानकः।                                                                                               उड्डीयाने दृढे बद्धे मुक्ति स्वाभाविकी भवेत्।।  "
                सभी बन्धों में उड्डीयान बन्ध श्रेष्ठ है इसका अभ्यास द्रढ़ हो जाने पर मुक्ति का मार्ग सरल हो जाता है।  
घेरण्ड संहिता में भी उड्डीयान बन्ध को मुक्ति को प्राप्त कराने वाला कहा है। 
शिव संहिता में उड्डीयान बन्ध के फल के संबंध में कहा गया है कि –
जो योगी नित्य प्रति चार बार उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करता है उनको नाभि शुद्धि एवं मरुत शुद्धि कि प्राप्ति होती है।
निरंतर छह माह तक उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करने वाला योगी मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।इस से जठराग्नि प्रज्वलित होती है।शरीर में पुष्टि कारक रसों की वृद्धि होती है।बुद्धिमान साधक को गुरु द्वारा उपदिष्ट होकर एकांत में इस बन्ध का अभ्यास करना चाहिए।  
दत्तात्रेय संहिता में कहा गया है कि इस बन्ध के सतत अभ्यास से मनुष्य व्रद्धत्व से मुक्त हो कर पुनः यौवन को प्राप्त होता है।
                              विश्लेषण :
उड्डीयान बन्ध के फल के बारे में हठयोग के सभी ग्रन्थों में लगभग समान फलों का ही विवरण है।
हठयोगप्रदीपिका में -
इसका प्रथम लाभ सुषुम्ना में प्राण का संचार करके ऊपर को ले जाना है।
अर्थात यह बन्ध,जो श्वांस सामान्यत इडा व पींगला नाड़ियों से बहता है, उसको रोक कर उन दोनों नाड़ियों के मध्य मे स्थित अति विशेष गुणों वाली आध्यात्मिक नाड़ी सुषुम्ना में पहुंचता है।इस नाड़ी मे प्रवेश के बाद ही कुंडलीनी शक्ति का जागरण होता है।जिससे साधक के सभी प्रश्न स्वतः ही हल हो जाते हैं।साधक को अनेक शारीरिक एवं मानसिक व विशेषकर आध्यात्मिक लाभ होते हैं।
इसके दूसरे लाभ के बारे कहा गया है कि -वृद्ध भी उड्डीयान बन्ध के अभ्यास से युवक के समान हो जाता है। 
सम्पूर्ण शरीर का सबसे मुख्य भाग उदर होता है। अगर व्यक्ति का उदर सही है तो उसके द्वारा किया गया भोजन अच्छी प्रकार से पचकर शरीर को पौष्टिकता प्रदान करेगा। उम्र बढ़ने के साथ ही (शरीर की) उदर की सूक्ष्म नाड़ियाँ जो अति महत्त्व की होती है,धीरे धीरे मृत होने लगती है।जिससे पाचन क्रिया भी प्रभावित होने लगती है।इस प्रकार शरीर का भी क्षरण होने लगता है,जो बुढ़ापे के रूप में प्रवर्तित हो जाता है। उड्डीयान बन्ध के निरन्तर अभ्यास से मृत कोशिकाए या सूक्ष्म नाड़ियाँ पुनर्जीवित हो जाती है। जिससे वृद्ध भी युवक के समान हो जाता है। इसमें सुषुम्ना में बहने वाला प्राण विशेष महत्त्व का है। 
इसके तिसरे फल के रूप में छः माह में मृत्यु को जितने वाला हो जाता है।यह भी अति गोपनीय तथ्य है इसका कारण भी सुषुम्ना में प्राण का संचार होना है।
जब प्राण सुषुम्ना में चलने लगता है जिससे कुण्डलिनी जाग्रत होती है। धीरे धीरे व्यक्ति सभी सुक्ष्म शक्तियों से जुड़ने लगता है। प्रकृति के छुपे हुए रहस्य साधक के सामने स्पष्ट होने लगते है। पंच महाभूत पृथ्वी,जल,मिट्टी, आकाश और वायु का स्वरूप साधक के सामने स्पष्ट हो जाता है। तथा उन पर नियंत्रण का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। क्योकि शरीर भी पंचतत्व से ही मिलकर बनता है।इस प्रकार साधक शरीर के क्षरण को रोकने में भी सक्षम हो जाता है और बहुत लम्बे समय तक शरीर को ज्यो का त्यों रखकर मृत्यु पर विजय पा लेता है। 
चौथे फल के बारे में कहा है कि मुक्ति का मार्ग आसान हो जाता है। वास्तव में उड्डीयान बन्ध का ये ही मुख्य फल है। मनुष्य असंख्य बार के आवागमन से गुजर चूका है। और ना जाने कितनी बार और आना जाना पड़ेगा।अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहता है। उड्डीयान बन्ध इस आवागमन को रोककर साधक के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त है। कुण्डलिनी जागरण के बाद मनुष्य को समझ आने लगता है की यह जीवन केवल साधना के लिए मिला है। इन्द्रियों के भोगो को भोगने के लिए नहीं। वह अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है। और उस प्रयत्न रुपी ,उस अभ्यास रुपी नौका द्वारा भवसागर से पार हो जाता है।और वहां पहुंच जाता है जहाँ से आवागमन नहीं होता है। वह पर सिर्फ मुक्ति ही है। 
वास्तव में ये साधनायें बड़ी रहस्यमयी व अत्यन्त गोपनीय रखने की होती है।किसी अयोग्य पात्र के सामने इनका जिक्र नहीं करना चाहिए।तथा जब तक योग्य गुरु ना मिल जाये तब तक स्वयं इनका अभ्यास भी नहीं चाहिए।योग्य गुरु के मिलने पर साधना का यह मार्ग सरल हो जाता है।  
आज के परिदृश्य में भी उड्डीयान बन्ध के अनेक लाभ है।इसके अभ्यास से कब्ज, एसिडिटी, गैस, जैसी बीमारियां दूर हो है। किडनी सम्बन्धी रोग दूर हो जाते है। फेफड़े शुद्ध होते है। लिवर सम्बन्धी रोग (पीलिया आदि)अग्नाशय सम्बन्धी रोग (सुगर आदि)आँतो सम्बन्धी रोग ठीक हो जाते है। मूत्र सम्बन्धी रोग दूर हो जाते है।   सावधानियाँ : खाली पेट इसका अभ्यास करे। 
                धीरे धीरे अभ्यास करे। 
                 गुरु के दिशानिर्देशन में करे।  
                दीर्घशंका वगैरह करने के बाद इसका अभ्यास करे। 
                अगर पेट का आपरेशन हुआ हो तो इसका अभ्यास न करे।   
                हर्निया रोग हो तो इसका अभ्यास न करे।
                आँतो सम्बन्धी कोई बीमारी हो तो इसका अभ्यास न करे।

  



















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