मुद्राऐ
हठयोग के ग्रंथो में आसन,प्राणायाम के बाद मुद्राओं का वर्णन किया गया है। मुद्रा अर्थात मोद देने वाली। अगर आकार की दृष्टि से देखे तो मुद्राओं में शरीर को आसन की तरह ही आकार दिया जाता है। परन्तु क्रियाविधि, लाभ तथा उद्देश्य में ये आसनो से भिन्न है।
प्रत्येक मुद्रा में एक क्रियाविशेष की जाती है।यह विशेष क्रिया किसी आसन को लगाकर व कभी कभी बगैर आसन के ही की जाती है।
हठयोग के प्रत्येक अंग जैसे आसन,प्राणायाम,मुद्रा,ध्यान समाधि का अपना एक उद्देश्य है।
आसन का उद्देश्य अंग विशेष का लाभ और साधना के लिए स्थिरता देना है।प्राणायाम शरीर को हल्का करता है। उसी प्रकार मुद्राओं का उद्देश्य शरीर का जो अनन्त ऊर्जा का भण्डार है जिसे कुंडलिनी शक्ति भी कहते है,को जागृत करना है। यह कुण्डिलिनी शक्ति सभी शक्तियों का आधार है। मुद्राओं के द्वारा सोई हुई कुण्डलिनी जागृत हो जाती है।
वैसे तो योग का प्रत्येक अंग स्वयं में सूक्ष्म है परन्तु योग की सूक्ष्मता का प्रारम्भ मुद्राओं से होता है।
क्योकि इन मुद्राओं के लाभ भी दिव्य है इसलिए ही इन्हे रत्न की पिटारी के समान गुप्त रखने को कहा गया है।
हठयोग में कुण्डलिनी सभी उर्जाओ का आधार है। और मुद्राओं से कुंडलिनी शक्ति का ही जागरण होता है,जो अनेक लाभ साधक को देती है। जैसे साधक बुढ़ापे तथा मृत्यु से छूट जाता है। इसके साथ ये मुद्राये 8 प्रकार के दिव्य ऐश्वर्यो (8 ऐश्वर्य अणिमा, गणिमा नामक आठ सिद्धियाँ है जो साधक को प्राप्त हो जाती है )को भी प्रदान करती है
जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तब पंचभूतात्मक शरीर के छः चक्रों के सभी पद्म एव ग्रन्थियाँ प्रस्फुटित हो जाती है। और इसके साथ ही प्राण सुषुम्ना में बहने लगता है। जिस कारण स्वभाव से चंचल मन जो हमेशा किसी न किसी का अवलम्बन लेकर इधर उधर दोड़ता रहता है,अवलम्बन रहित होकर स्थिर हो जाता है। और जब मन स्थिर हो जाता है तो वह अपने स्वरूप की प्राप्ति कर लेता है।अपने स्वरूप को पाना ही अमरत्व को पाना है,जिससे व्यक्ति का जन्म मरण का भय नष्ट हो जाता है।पंचभूतात्मक शरीर की शुद्धता होने से शरीर का,इंद्रियों का क्षरण भी नहीं होता या नाममात्र का होता है। और साधक का शरीर दीर्घकाल तक युवा ही रहता है।
भगवान् महादेव का माता पार्वती जी को दिया उपदेश की -ये मुद्रायें सभी सिद्धियो को देने वाली है,ये देवताओ के लिए भी दुष्प्राप्य है,इन मुद्राओं के महत्त्व को ही प्रदर्शित करता है।
हठयोगप्रदपिका में वर्णित 10 मुद्राये महामुद्रा,महाबंध,महवेध,खेचरी,उड्डियान,मूलबन्ध,जालन्धर बंध,विपरीतकर्णी,वज्रोली,शक्तिचालिनी है।
इसी प्रकार घेरण्ड सहिंता में 25 मुद्राओं का वर्णन है जो की महामुद्रा,महाबंध,महवेध,खेचरी,उड्डियान,मूलबन्ध,जालन्धर बंध,विपरीतकर्णी,वज्रोली,शक्तिचालिनी,नभोमुद्रा,योनिमुद्रा,ताडागी मुद्रा,मांडवी मुद्रा,शाम्भवी मुद्रा,पञ्चधारणा (पार्थिवी या अधोधरणा,आम्भासी धारणा,वैश्वानरी धारणा,वायवी धारणा,एवं नभोधरणा या आकाशी धारणा),अश्वनी मुद्रा,पाशिनि मुद्रा,काकी मुद्रा,मतांगी मुद्रा,भुजङ्गिनी मुद्रा है।
प्रत्येक मुद्रा में एक क्रियाविशेष की जाती है।यह विशेष क्रिया किसी आसन को लगाकर व कभी कभी बगैर आसन के ही की जाती है।
हठयोग के प्रत्येक अंग जैसे आसन,प्राणायाम,मुद्रा,ध्यान समाधि का अपना एक उद्देश्य है।
आसन का उद्देश्य अंग विशेष का लाभ और साधना के लिए स्थिरता देना है।प्राणायाम शरीर को हल्का करता है। उसी प्रकार मुद्राओं का उद्देश्य शरीर का जो अनन्त ऊर्जा का भण्डार है जिसे कुंडलिनी शक्ति भी कहते है,को जागृत करना है। यह कुण्डिलिनी शक्ति सभी शक्तियों का आधार है। मुद्राओं के द्वारा सोई हुई कुण्डलिनी जागृत हो जाती है।
वैसे तो योग का प्रत्येक अंग स्वयं में सूक्ष्म है परन्तु योग की सूक्ष्मता का प्रारम्भ मुद्राओं से होता है।
क्योकि इन मुद्राओं के लाभ भी दिव्य है इसलिए ही इन्हे रत्न की पिटारी के समान गुप्त रखने को कहा गया है।
हठयोग में कुण्डलिनी सभी उर्जाओ का आधार है। और मुद्राओं से कुंडलिनी शक्ति का ही जागरण होता है,जो अनेक लाभ साधक को देती है। जैसे साधक बुढ़ापे तथा मृत्यु से छूट जाता है। इसके साथ ये मुद्राये 8 प्रकार के दिव्य ऐश्वर्यो (8 ऐश्वर्य अणिमा, गणिमा नामक आठ सिद्धियाँ है जो साधक को प्राप्त हो जाती है )को भी प्रदान करती है
जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तब पंचभूतात्मक शरीर के छः चक्रों के सभी पद्म एव ग्रन्थियाँ प्रस्फुटित हो जाती है। और इसके साथ ही प्राण सुषुम्ना में बहने लगता है। जिस कारण स्वभाव से चंचल मन जो हमेशा किसी न किसी का अवलम्बन लेकर इधर उधर दोड़ता रहता है,अवलम्बन रहित होकर स्थिर हो जाता है। और जब मन स्थिर हो जाता है तो वह अपने स्वरूप की प्राप्ति कर लेता है।अपने स्वरूप को पाना ही अमरत्व को पाना है,जिससे व्यक्ति का जन्म मरण का भय नष्ट हो जाता है।पंचभूतात्मक शरीर की शुद्धता होने से शरीर का,इंद्रियों का क्षरण भी नहीं होता या नाममात्र का होता है। और साधक का शरीर दीर्घकाल तक युवा ही रहता है।
भगवान् महादेव का माता पार्वती जी को दिया उपदेश की -ये मुद्रायें सभी सिद्धियो को देने वाली है,ये देवताओ के लिए भी दुष्प्राप्य है,इन मुद्राओं के महत्त्व को ही प्रदर्शित करता है।
हठयोगप्रदपिका में वर्णित 10 मुद्राये महामुद्रा,महाबंध,महवेध,खेचरी,उड्डियान,मूलबन्ध,जालन्धर बंध,विपरीतकर्णी,वज्रोली,शक्तिचालिनी है।
इसी प्रकार घेरण्ड सहिंता में 25 मुद्राओं का वर्णन है जो की महामुद्रा,महाबंध,महवेध,खेचरी,उड्डियान,मूलबन्ध,जालन्धर बंध,विपरीतकर्णी,वज्रोली,शक्तिचालिनी,नभोमुद्रा,योनिमुद्रा,ताडागी मुद्रा,मांडवी मुद्रा,शाम्भवी मुद्रा,पञ्चधारणा (पार्थिवी या अधोधरणा,आम्भासी धारणा,वैश्वानरी धारणा,वायवी धारणा,एवं नभोधरणा या आकाशी धारणा),अश्वनी मुद्रा,पाशिनि मुद्रा,काकी मुद्रा,मतांगी मुद्रा,भुजङ्गिनी मुद्रा है।
No comments:
Post a Comment