5 Apr 2016

महामुद्रा

महामुद्रा 
हठयोग के सभी ग्रंथो में महामुद्रा का वर्णन है। इस मुद्रा के महत्त्व के कारण ही इसे महामुद्रा कहा जाता है। कुण्डलिनी जागरण में इस मुद्रा का विशेष योगदान है। 
विधि :
सभी ग्रंथो में महामुद्रा की समान विधि का वर्णन है। 
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
"पादमुळें वामेन योनि सम्पीड्य दक्षिणम्। 
प्रसारितं पदं कृत्वा कराभ्यां धारयेद् दृढम्। 
कण्ठे बन्धं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वतः।।"
बाये पैर की एड़ी से सिवनी (गुदा व उपस्थ के बीच का स्थान )दबाकर दाहिने पैर को फैलाकर दोनों हाथो से पैर की उंगलियों को दृढ़ता से पकड़कर कुम्भक करके जालन्धर बन्ध लगाकर वायु को उपर की तरफ खींचे। 
"चन्द्राङ्गे  तू समभ्यस्य सूर्याङ्गे पुनरभ्यसेत्। 
यावत्तुल्या भवेत् संख्या ततो मुद्रा विसर्जयेत।।"
चन्द्र भाग से अर्थात बाये पैर से करने के बाद दायें पैर से भी अभ्यास करें। दोनों और से बराबर अभ्यास करना चाहिए 
"पायुमुलं वामगुल्फे समपीडय दृढयत्नतः। 
याम्यपादं प्रसार्याअथ करें धृतपदांगुलः। 
कण्ठ संकोचनं कृत्वा भुरवोर्मध्य निरीक्षयेत। 
महमुद्राभिधा मुद्रा कथ्यते चैव सुरिभिः।।"
गुह्य प्रदेश को अत्यन्त दृढ़ता पूर्वक बायीं एड़ी से दबाकर दाहिने पैर को फैलाकर दोनों हाथो से उसकी समस्त उंगलियों को पकड़ने के पश्चात जालन्धर बन्ध  लगाकर दोनों भौहों के मध्यभाग का अवलोकन करने को ही विद्वान लोग महामुद्रा कहते है। 
हठयोग के  ग्रथ ग्रहयामल  के अनुसार -
योनिद्वार को वाम पैर की एड़ी से दबाकर दायें पैर को फैलाकर वक्त्र (ठुड्डी ) को कंठ में समाहित कर (जालन्धर बन्ध कर)कुम्भक प्राणायाम द्वारा वायु को अवरुद्ध करने के पश्चात उस पूरित वायु को धीरे धीरे रेचन करें,कभी भी तेजी से रेचन नहीं करना चाहिए। इसे ही महामुद्रा कहते है। 
जिस प्रकार दण्ड से ताड़ित करने से सर्प दण्ड के समान ही सीधा हो जाता है उसी प्रकार कुण्डलिनी भी सरल भाव में आ जाती है। 
लाभ :
महामुद्रा के फलों  के सम्बन्ध में घेरण्ड सहिंता में कहा गया है की -
"क्षयकासं गुदावर्त्त प्लीहाजीर्ण जवरंतथा। 
नाशयेत सर्वरोगांश्च  महामुद्रानिसेवनात।  "
इस मुद्रा के अभ्यास से क्षय ,कास,गुदावर्त्त,प्लीहा,अजीर्ण,ज्वर के साथ साथ समस्त रोगों का विनाश हो जाता है। 
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
"न है पथ्यमपथ्यं व रसाः सर्वेअपि निरसाः। 
एपीआई भुक्तं विषं घोरं पियूषमिव जीर्यति।।"
महामुद्रा के साधक के लिए कुछ भी भोजन पथ्य अथवा अपथ्य नहीं रह जाता है। नीरस वस्तु भी रसयुक्त हो जाती है। भयानक विष को भी सहज पचाता है जैसे की वह अमृत हो। 

"क्षयकुष्ठगुदावर्त्तगुल्माजीर्णपुरोगमाः। 
तस्य दोषाः क्षयं यान्ति महामुद्रां तू योअभ्यसेत।। "
जो महामुद्रा का अभ्यास करता है उसके क्षय ,कुष्ठ रोग ,कोष्ठ बद्धता,वायुगोला ,अजीर्ण तथा अनेक संभावित दोष भी नष्ट हो जाते है। 
विश्लेषण:
इस प्रकार कहा जा सकता है की महामुद्रा के अभ्यास का शारीरिक  स्तर पर भी बहुत इससे अनेक रोग दूर हो जाते है। जैसे साधक को टीबी नहीं होती अगर है तो ठीक हो जाती है। गुदा सम्बन्धी रोग दूर हो जाते है। धातु प्रबल हो जाता है तथा मूत्र रोग भी थक हो जाते है।किसी भी प्रकार की रक्त की अशुद्धि हो वह ठीक हो जाती है पेट में गैस बननी बंद हो जाती है। प्लीहा अर्थात तिल्ली का आकर नहीं बढ़ता जिससे तिल्ली संबंधी रोग जैसे ठंड से बुखार आना,हल्का बुखार रहना,स्वांस का फूलना ठीक हो जाता है। कब्ज जैसे समस्या दूर हो जाती है अपच नहीं रहती है 

सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करें। 
जालन्धर बंध पूर्ण ढंग से लगाए। 
अगर पेट का कोई आपरेशन हुआ तो अभ्यास न करें। 
अगर पेट में अधिक गर्मी हो तो हल्का अभ्यास करें। 
कुम्भक के बाद धीरे धीरे रेचन करें। 










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