6 Apr 2016

महाबन्ध

महाबन्ध 
मुद्राओं में महाबंध मुद्रा का वर्णन भी हठयोग के सभी ग्रंथो में किया गया है। यह मुद्रा दो बन्धो का सयुक्त रूप है। इसी कारण इसे महाबंध भी कहते है। 
यह मुद्रा तीन प्रकार के प्राणो का समायोजन करती है। अर्थात प्राण अपान को मिलाती है समान के क्षेत्र में।इस कारण शरीर में अनेक आश्चचर्य जनक परिवर्तन भी होते है। 
विधि : 
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है -
"दक्षपादेन तद् गुल्फं सम्पीडय यत्नतः सुधी।।
शनै शनै चालयेत ikf".kZ योनिमाकुञ्चयेचछनैः। 
जालन्धरे धारयेत प्राणम्महाबन्धो निगद्यते।।"
बायीं एड़ी से  गुह्यद्वार को अवरुद्ध कर दाये पैर को बायीं जंघा पर यत्न पूर्वक रखकर बायीं एड़ी को पीड़ित करके धीरे धीरे कुक्षि को परिचालित करने के साथ मूलबन्ध लगाते हुए जालन्धर बन्ध द्वारा प्राण वायु को धारण करना ही महाबंध है।  
"ikf".kZ वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयते। 
वामोरुपरि संस्थाप्य दक्षिणं चरणं तथा।।
पुरयित्वा ततो वायुं ह्रदये चिबुकं दृढ़म्। 
निष्पीडय योनिमाकुंच्य मनो मध्ये नियोज्येत।।"
बाये पैर को सिवनी से लगाकर दायें पैर को बायीं जंघा पर रखकर पूरक करके चिबुक को ह्रदय प्रदेश से लगाकर अर्थात जालन्धर बन्ध लगाकर योनि स्थान का आकुंचन करके अर्थात मूल बंध लगाकर मन को सुषुम्ना में स्थापित करना चाहिए यथासम्भव कुम्भक करने से अनन्तर धीरे धीरे वायु का रेचन करें और इसी प्रकार दूसरे पैर भी करें। अर्थात दाये पैर को सिवनी से सटाकर बाये पैर को उपर रखकर वही क्रम दोहराए।
कुछ लोगो का मत है की इस मुद्रा में जालन्धर बंध न लगाकर जिह्वा बंध लगाना (जिह्वा को दांतों  से लगाना ) श्रेयस्कर है। 
परन्तु श्री पूर्ण नाथ जी के सिद्ध सिद्धांत के अनुसार राजदंत जिह्वा मूल के छिद्र को कहते है ,इस प्रकार कहा जा सकता है की जिह्वा को जिह्वा मूल से लगाना है। 
 शिव सहिंता में कहा गया  की वाम उरु के उपर दाये पैर को रखकर योनि और गुह्य प्रदेश को संकुचित करके (मूल बंध लगाकर )अपान वायु को उपर की  तरफ ले जाकर नाभि में स्थित समान वायु के क्षेत्र में प्राण अपान को जठर में कुम्भक प्राणायाम द्वारा मिलाने की क्रिया को महाबंध कहते है। 
इस प्रकार कहा जा सकता है की एड़ी को गुदा व उपस्थ के बिच दृढ़ता से सटाकर दूसरे पैर को ऐसे रखे की अर्द्धपद्मासन की स्थिति बन जाए। फिर मूल बंध लगाए उसके बाद कुम्भक प्राणायाम करके साथ ही जालन्धर बंध भी लगाए। उसी अवस्था में निचे से अपान वायु को उपर की तरफ ले जाए और नासिका से ली गई वायु अर्थात प्राण को निचे की तरह ले जाकर जठर अर्थात उदर क्षेत्र में ले जाए और वहाँ  पर प्राण समान कहलाता है इसी जगह समान और अपान वायु को मिला दे। ये एक अध्यात्मिक यात्रा है इसी कारण से इसे केवल साधक ही समझ सकते है। 
इसी प्रकार पैरो के दूसरे क्रम से भी अर्धपद्मासन में बैठे और सारी प्रक्रिया को दोहराये। इसे ही महाबंध मुद्रा कहते है।  
लाभ :
हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है की -
यह महाबंध मुद्रा सभी नाड़ियो में प्राण के उर्ध्व गति को रोकता है और महान सिद्धियो को प्रदान करता है। 
यह मुद्रा कालपाश रूपी महान बंधन को काट देती है इसके अभ्यास से तीनो नाड़ियो (इड़ा,पिंगला,सुषुम्ना )का संगम होता है जिससे मन अंतराकश या महाकाश जिसे शिवस्थान भी कहते है में पहुँच जाता है। 
घेरण्ड सहिंता में कहा गया है -
यह मुद्रा बुढ़ापा तथा मृत्यु को नष्ट करने वाली है। इसकी सिद्धि से समस्त कामनाओ की सिद्धि हो जाती है। 
शिव सहिंता में कहा गया है की -
इस मुद्रा के अभ्यास से साधक अपने शरीर को पुष्ट करने के साथ ही अस्थियो को भी सुदृढ़ कर लेता है। इसके द्वारा मानव मन संतुष्ट रहता है तथा अभ्यासी के सभी मनोरथो की सिद्धि हो जाती है। 
विश्लेषण :
इस प्रकार कहा जा सकता है की महाबंध मुद्रा शारीरिक  लाभ व अध्यात्मिक लाभ दोनों हो प्रदान करती है। लाभ शरीर से प्रारम्भ होकर दिव्य स्तर तक जाते है। 
शरीर के विभिन्न प्रकार के रोग जैसे कब्ज,गैस,अपच दूर हो जाते है। मूत्र व धातु के समस्त रोग दूर हो जाते है। घुटने व जंघा मजबूत होती है। कोहनियों के जोड़ मजबूत होते है। थायरॉयड संबंधी समस्या दूर हो जाती है। गर्दन दर्द नहीं होता। शरीर के लगभग सभी रोग महाबंध मुद्रा के अभ्यास से ठीक हो जाते है। 
अध्यात्मिक स्तर पर तो इसके बहुत ही लाभ है। 
यह मुद्रा सुषुम्ना को छोड़कर अन्य सभी नाड़ियो में प्राण की उर्ध्व गति को रोक देती है। जिसका बहुत फायदा साधक को मिलता है जो प्राण अब तक अनेक जगह पर बटा हुआ था वो सब जगह से रूककर सुषुम्ना से बहने लगता है। इस मुद्रा के अभ्यास से साधक मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात शरीर का क्षरण भी नहीं होता और साधक के ह्रदय से मृत्यु का भय भी नष्ट हो जाता है। वह अपने मूल स्वरूप का दर्शन करने से अभय हो जाता है।  प्राण जो सामान्यत इड़ा या पिंगला से बहता है इस मुद्रा के अभ्यास से रूक जाता है। और सुषुम्ना से होकर बहने लगता है। और इन तीनो नाड़ियो के संगम अर्थात आज्ञाचक्र पर पहुँच जाता है। आज्ञा चक्र को अन्ताकाश या महाकाश  भी  कहते है। 
सावधानियाँ : 
खाली पेट ही अभ्यास करें।
कमर दर्द या घुटने या हाथ का दर्द हो तो यह अभ्यास ना करें।
गर्दन संबंधी समस्या हो तो अभ्यास न करें।
कई बार अभ्यास के समय पेट में अधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है जिस कारण कब्ज,मुँह में छाले जैसे समस्या हो जाती है।यह समस्या अपान प्राण को मिलाने से होती है।



































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