25 Sept 2020

ध्यान 

महर्षि पतंजलि विभूतिपाद के शुत्र में कहते हैं।
"तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम "
जब साधक धारणा  का अभ्यास करता है।  तोह ध्येय का ज्ञान करने वाली वृत्ति अर्थात ध्येय (  जो ध्यान का विषय है) आलम्बन वाली वृत्ति सामान प्रवाह में में उदय नहीं होती है।  बीच बीच में अन्य विषय वाली वृत्ति का उदय होता रहता है
परन्तु जब ध्येय  (जो ध्यान का विषय है ) आलम्बन वाली वृत्ति का लगातार एकतानता के साथ सामान प्रवाह  से उदय होता रहता है।  कोई अन्य वृत्ति बीच में नहीं आती तोह उसको "ध्यान "कहते हैं।  

धारणा

धारणा 

पतंजलि योग शुत्र  में चार पाद है १. समाधिपाद २. साधना पाद ३ विभूतिपाद ४. कैवल्यपाद विभूतिपाद में योग की विभूति का वर्णन है। 
विभूतिपाद में योग के अंतरंग धारणा, ध्यान तथा समाधि  का वर्णन किया गया है  इन तीनो को मिलकर संयम कहा जाता है।  इस पाद के प्रथम शुत्र  में ही  धारणा का वर्णन करते हुए कहा गया है -
"देशबन्धश्चित्तस्य  धारणा "
चित्त का वृत्तिमात्र  से किसी स्थान विशेष में बांधना "धारणा "कहलाता है।  वृत्ति-व्यापर, या चित्त में चलने वाली विषयों की श्रृंखला को कहते है।  इस प्रकार चित्त अपने व्यापर को किसी स्थान विशेष जैसे आज्ञा चक्र, विशुद्धिचक्र, अनाहतचक्र अथवा सूर्य, चन्द्रमा  या किसी वाह्य स्थान पर बांधना या रोकना, ठहराना या लगाना ही धारणा कहलाती है। 
ध्यान अवस्था में भी  जब प्रत्याहार द्वारा  इन्द्रियां अन्तर्मुख हो जाती हैं,चित्त अपने ध्यान के विषय को वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।  क्योंकि  ये चित्त का धर्म है कि  वो किसी भी विषय को वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।प्रारंभिक अवस्था में भी चित्त बहार के विषयों को  इन्द्रियों द्वारा वृत्तिमात्र से ग्रहण करता है।  
जब चित्त द्वारा ध्येय विषय  अर्थात ध्यान का विषय  वृत्तिमात्र से ग्रहण किया जाता है तब वह वृत्ति ध्येय के विषय (अर्थात जिसमे ध्यान  लगाया गया है।  उसी ध्यान के विषय  (नाभि , हदयाय, कमल आदि ) से सामान हो कर स्थिर रूप से चित्त के स्वरुप को प्रकाशित करने लगती हैं। 
हम कह सकते हैं जब योग के प्रथम  पांच अंगों से चित्त स्थिर होने लगे तो उसको अन्य विषयों से हटते हुए एक ध्येय विषय (जैसे नाभि ह्रदय, चाँद, तारों आदि ) में वृत्तिमात्र से ठहरना ही धारणा कहलाती है। 
धारणा की अवस्था में बीच बीच में वृत्ति बहिरंग होती रहती है लागतार एकतानता (सामान प्रवाह  में )नहीं रहती है। अर्थात सरल शब्दों में कहूं तो कुछ समय के लिए ध्यान लगा और उसके बाद भांग हो गया है।यह प्रक्रिया इसी रूप में चलती रहती है।इसे ही धारणा कहते है। 

12 Sept 2018

श्री गुरु बाबा फकीरा दास जी के ब्रह्म मंत्र "सत् साहिब "की अर्थ सहित व्याख्या 
कहा जाता है की वेद,उपनिषद तथा अन्य सभी वैदिक ग्रन्थों में कहे गए श्लोक सिद्ध मंत्रो के समान फलदायी है। अनन्त स्वरूप परमात्मा की तरह की तरह ही वे अनन्त स्वरूपों में परमात्मा का गुणगान करते है। सभी मन्त्र शब्दों की ऊर्जा के ऐसे संघनित समूह है ,जो प्रत्येक दशा में अपना प्रभाव डालते है। 
आज मेरा उदेद्श्य न तो मंत्रो के इतिहास का वर्णन करना है और ना ही उनकी उर्जाओ का वर्णन करना है। आज के मेरे लेख का ध्येय ऐसे ही एक मंत्र की व्याख्या करना है। यह मन्त्र है सत् साहिब। मेरे गांव के प्रत्येक व्यक्ति की तरह यह मन्त्र मेरे जीवन का भी आधार है। बचपन से ही जब हम किसी भी देवी देवता के मन्दिर के सामने से निकलते थे तो सिर झुकाकर मन से निकलता था सत् साहिब। यह व्यवहार हमारे सम्पूर्ण गांव की दिनचर्या में शामिल है। परन्तु इस सत् साहिब का वास्तविक मूल अर्थ क्या है। कभी समझ नहीं आया। अनेक विचार आते परन्तु कोई भी वास्तविक ना लगता। लम्बे समय तक मै इसको समझ न सका,और जब गुरु बाबा फकीरा दास की कृपा दृष्टि हुई तो कुछ ही क्षणों में इसका अर्थ स्पष्ट हो गया। तब समझ आया की सत् साहिब मन्त्र ओउम् की ही पूर्ण व्याख्या करता है। यह ओउम् में कहे गए परमात्मा के तीनो रूप अकार,उकार,मकार और बाद में लगे हलंत का ही स्वरूप है।ओउम् के अकार, उकार,मकार परमात्मा के विराट रूप,हिरण्यगर्भ रूप,और कारण रूप का वर्णन करते है। 
अब हम सत् साहिब का अर्थ समझने का प्रयास करते है। सत् कहते है सत्य को ,और साहिब फ़ारसी में मालिक को कहते है। मालिक अर्थात परमात्मा, परमेश्वर,भगवान। 
इसका अर्थ हुआ की सत् ही मालिक है,सत्य ही परमात्मा है। अब हम सत् का अन्वेषण करे की सत् या सत्य का क्या स्वरूप है। क्या सत् का स्वरूप इतना ही है ,जितना प्रथम दृष्टया हम समझते है की -श्रोत ने जो सुना,चक्षु ने जो देखा तथा ह्रदय ने जो महसूस किया वाणी से वही कहना सत्य है। परन्तु इस महामन्त्र मे सत् का प्रयोग केवल इस अर्थ में शायद नही हुआ है। जिस अर्थ में सत् का प्रयोग हुआ है,उसको निम्न स्तरो पर समझने का प्रयास करते है। 
प्रथम:स्थूल जगत के स्तर पर ,द्वितीय:सूक्ष्म जगत के स्तर पर और तृतीय:कारण जगत के स्तर पर। 
तीनो बिन्दुओ को निम्न प्रकार समझते है ... 
कारण जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण :ये जो सम्पूर्ण दृश्य है अर्थात प्राकृत आँखों से जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब स्थूल जगत कहलाता है।अब इस जगत में सत् का अन्वेषण करते है की -सत्य क्या है ? सत्य वही है जो दिखाई देता है। अर्थात मनुष्य,जीव जंतु,पशु पक्षी ,पेड़ पौधे सभी जड़ व चेतन सत् है। अर्थात माता पिता,भाई बंधू,मित्र व शत्रु सब सत् है। 
इस प्रकार सत् साहिब अर्थात माता पिता,भाई बंधू,पशु पक्षी,जीव जंतु सभी,साहिब अर्थात मालिक अर्थात दाता अर्थात परमात्मा,परमेश्वर,भगवान् या ईश्वर है। कहने का अर्थ हुआ की इन सभी परमात्मा स्वरूप मानकर सभी के साथ श्रद्धा का व्यवहार करे, दया का व्यवहार करे, समानता का व्यवहार करे।  
और यही भाव तो ओउम् के पहले अक्षर "अकार"का है। इसमें भी कहा गया है की वह परमेश्वर सबका नियन्ता सर्व व्यापक है ,विशालकाय है,स्थूल है,सर्वत्र है ,अर्थात वह आकाश है,पृथ्वी है,जल है,अग्नि है,वायु है,पशु है,पक्षी है,पेड़ है,पौधे है,जीव है,जंतु है,नर है,नारी है,भाई है,बंधू है,मित्र है,शत्रु है,माता है,पिता है,पुत्र है,पुत्री है। सब वही है।  
श्रीमदभगवदगीता में भगवान् वासुदेव श्री कृष्ण ने कहा है। ........ 
"विद्याविनयसम्पने ब्राह्मणो गवि हस्तिनी। 
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।"  
जो लोग विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में,गाय में,हाथी में,कुत्ते में और चांडाल में समान देखते है अर्थात मुझ वासुदेव श्री कृष्ण को ही देखता है वही ज्ञानी है। 
"सम पश्यन्तु सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम। 
न हिनस्त्यात्मनात्मनं ततो याति परां गतिम्।।"
जो पुरुष सब में सम भाव से स्थित परमेश्वर को देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता ,वह परम गति को प्राप्त होता है। 
सूक्ष्म जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण: अब अगर हम थोड़ा सूक्ष्मता से ध्यान करे,सूक्ष्मता से सत् का अन्वेषण करे तो क्या ये स्थूल जगत वास्तव में सत् है,नहीं यहाँ की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। उसका अस्तित्व आज है कल नहीं है। फिर ये सत् कैसे हुआ?क्योकि सत् तो हमेशा एक जैसा ही रहता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन नहीं होता है। गहराई से,विवेक से चिंतन करने पर ज्ञात होता है की शरीर को चलाने वाली आत्मा है,जीवात्मा है।यह जो सभी के शरीर में स्थित आत्म तत्व है,जो शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता वही सबका मालिक है,साहिब है,ईश्वर है और वही सत् है। वह कभी दिखाई नहीं देता,अतिसूक्ष्म है,हिरण्यगर्भ है।और वही हिरण्यगर्भ सत् है। अब अगर ओउम् के उकार अक्षर की व्याख्या करे तो उकार का अर्थ है वः परमपिता,जो हिरण्यगर्भ है,सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है,वह एक परमाणु में भी समान रूप से विद्धमान है।वह सभी जड़ चेतन का मूल तत्व है। 
 "न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।"
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है,न मरता है,न उत्पन्न होकर फिर होने वाला है क्योकि यह अजन्मा,नित्य,सनातन,पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है। 
फिर कहा है -
"अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।"

यह आत्मा अच्छेद्य है,अदाह्य है,अक्लेद्य और निसंदेह अशोष्य है। यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी अचल,स्थिर रहने वाला और सनातन है। 

कारण जगत के स्तर पर सत् का अन्वेषण: अब अगर और सूक्ष्मता से समझे और गहराई से सत् का पुनः अन्वेषण करे की क्या जीवात्मा ही अंतिम सत् है,उससे सत् कुछ नहीं है तो अनेक साधको के अनुभव है की जीवात्मा से परे भी जीवात्मा को चलाने वाली एक शक्ति है। इसी शक्ति के कारण समस्त सृष्टि की रचना हुई है। वही अंतिम परम् सत् है। वह अंतिम परम् सत् ही जो समस्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है ,ईश्वर है,परमात्मा है,मालिक है।ओउम् के मकार अक्षर का भी यही अर्थ है की इस सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण परमात्मा ही है। 

इसी प्रकार सत् साहिब में सत् के त अक्षर में लगने वाले हलन्त (,)का वही अर्थ है जो ओउम् के अक्षर म के साथ लगने वाले हलन्त (,)का है,की इस सम्पूर्ण सृष्टि में अंदर बाहर,ऊपर निचे,सर्वत्र सब कुछ परमात्मा ही और सब कुछ उसका ही है उसके बाहर कुछ नहीं है।  
इस प्रकार कह सकते है यह सत् साहिब मंत्र ओउम् की ही सम्पूर्ण व्यख्या करता है।  
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16 Apr 2018

थायरॉइड के लिए योगासन 
ग्रीवा चालन * 
अर्द्धचक्रासन *
हस्तपादासन *
वीरासन 
त्रिकोणासन 
कोणासन 
बैठकर करने वाले आसन :  मण्डूकासन                                        
उष्ट्रासन *
पश्चिमोत्तान आसन   
अर्द्धमत्स्येन्द्रासन 
भूनमनासन 
पेट के बल करने वाले आसन :   शलभासन                                       
भुजंग आसन *
धनु आसन 

पीठ के बल करने वाले आसन :   सर्वांगासन  *                                      
हलासन *
चक्रासन 
सेतुबंध *
प्रणायाम :  कपालभाति  *      
उज्जायी *
                                                                 
                 
                  

                                                                   

5 Apr 2018

पतंजलि योग प्रदीप में आसन

पतंजलि योग प्रदीप में आसन 

योगप्रदीप के साधनापाद के ४६ वे  आसन  की व्याख्या की गयी है।  उन्होंने आसान के सम्बन्ध में कहा है "स्थिरसुखम आसनम "
अर्थात स्थिर बैठना एवं सुख से बैठना ही आसन है।  शरीर की जिस स्थिति में भी व्यक्ति लम्बे समय तक बिना हिले डुले बैठ सकता है।  और लम्बे समय तक सुख पूर्वक निश्चलता के साथ बैठना ही आसान है।  
यहाँ पर महर्षि पतंजलि  का आसान से आशय है।  जिसमे सुखपूर्वक वह ध्यान में लम्बे समय तक सरलता से बैठ सके।  आसनें का विस्तृत वर्णन हठयोग के भाग  में किया गया है. अतः आसनों का अध्ययन हम वहीँ पर करेंगे।  

8 May 2017

# yoga fights diabetes भारत का एक ऐसा गांव जहाँ किसी भी तरह का कोई नशा नहीं किया जाता:"

"ग्राम मिरगपुर :भारत का एक ऐसा गांव जहाँ किसी भी तरह का कोई नशा नहीं किया जाता:"
सत्त साहिब 
आज एक अति विशेष व अति महत्त्वपूर्ण खोज को आप सब के सूचनार्थ लिख रहा हुँ। क्योकि सुचना हमारे देश के गौरव की,हमारी सभ्यता के विकास की,व्यक्ति के विकास की है। और यह विकास शारीरिक,ना होकर अध्यात्मिक है। अतः योग के ब्लॉग में यह सब लिखना मुझे उचित भी लगा है। 
परमपिता परमेश्वर की शरण में खुद को समर्पित करके  जो कुछ भी लिख रहा हु उन्ही को समर्पित करते हुए सर्वप्रथम गुरु स्तुति करता हूँ।क्योकि गुरु का स्थान ब्रह्मा,विष्णु,महेश से भी ऊँचा है। 
"गुरु प्रशान्तं भवभीतनाशं। 
विशुद्धबोधम् कलुषस्यहारम। 
आनंदरूपम न्यनाभिरामं। 
श्री गुरु फकीरां  नितरां नमामि।।"
आज मेरा उद्देश्य आपको  भारत की ऐसी सभ्यता से परिचित कराना है। ,जिसके समान आदर्शो वाली ही कोई सभ्यता नहीं है ,फिर उससे उच्च तो कहाँ मिलेगी। 
क्या कभी सोचा की हमारे प्राचीन वैदिक धर्म के सिद्धांत कितने सर्वोच्च थे।
क्या थे वो सिद्धांत ?
जैसे : माता पिता ,गुरुजनो की पूर्ण मन से सेवा करना ,ईश्वर द्वारा दिए गए कर्तव्य कर्मो को ईश्वरीय आज्ञा मानकर करना,तथा खान पान का विशेष ध्यान रखते हुए सात्विक मन तथा मजबूत तन के साथ  साधना करना है। 
उपरोक्त सभी गुणों को आधुनिक भारत वर्ष लगभग त्याग ही चूका है ,तो शेष विश्व से तो क्या उपेक्षा करना। 
आज के परिदृश्य में अगर कोई एक अकेला परिवार भी उपरोक्त गुणों को संजोय हुए है,तो वह ही अपने आप में मिसाल है। आज मै आपका परिचय ऐसे ही एक गाँव से कराने जा रहा हूँ ,जो गाँव (जिसकी आबादी लगभग १० से १२ हजार है।)वैदिक सभ्यता के सभी अनमोल गुण रूप मोतियों को अपनी मातृभूमि की गोद में सदियों से संजोय हुए है। इस गाँव में लगभग 500 सालो से ग्रामीण इन वैदिक गुणों को अपनी आने वाली नस्लों की, नसों में,रक्त के साथ बचपन से प्रवेश करा देते है। 
परिचय :सर्वप्रथम इस गाँव का परिचय देता हूँ। यह गाँव भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश राज्य के गंगा,यमुना जैसी दिव्य नदियों के दोआब में उपस्थित सहारनपुर जिले के देवबन्द तहसील में स्थित है ,जिसका नाम मिरगपुर है। इस गाँव में सभी हिन्दू है ,और सभी का मुख्य व्यवसाय कृषि है।यहाँ के व्यक्ति अपने धर्म के प्रति बहुत ही जागरूक है। यही कारण है की इस गाँव ने पिछले 500 सालो से प्राचीन वैदिक पद्धति को अपने दामन में संभलकर रखा है।
 अब इस गाँव की वैदिक विशेषताओ का वर्णन करता हूँ -
 किसी भी धर्म का अपमान करना या आपस में वैवनस्य फैलाने का मेरा मकसद नहीं है।
परन्तु सत्य लिखना मेरा कर्तव्य है जो मुझे पूर्वजो से मिला है। 
लगभग 500 वर्ष पहले सम्पूर्ण भारत वर्ष पर मुगलो का अधिकार था।अतः देश में रहने वाले वैदिक धर्मार्थी पूर्ण रूप से दूसरे धर्मार्थियो की दया पर निर्भर थे,तथा पूर्ण रूप से असुरक्षित थे। अपनी सुरक्षा के लिए,अपने धार्मिक स्थलों की रक्षा के लिए हिन्दुओ को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे। जजिया कर उनमे से ही एक था। गाँव के इतिहास की घटना मुगल सम्राट जहाँगीर के शासनकाल की है। उन दिनों में वे गाँव जो हिन्दुओ के थे ,देश में हो रहे जबरन धर्मांतरण के कारण बदल चुके थे।मिरगपुर में भी सभी का धर्म परिवर्तन किया जा चूका था। केवल एक परिवार ही शेष बचा था ,जो हिन्दू था।जिस पर अनेक प्रकार से परिवर्तन के दबाव डाले जा रहे थे।कभी उनके आँगन में बनते खाने में गाय का मांस डाल दिया जाता था,कभी उनको,औरतो और बच्चो सहित मार डालने की धमकी दी जाती थी। परिवार का मुखिया जिनका नाम मोल्हड़ था। ईश्वर में आस्था रखते हुए ना जाने कैसे अपने धर्म को तथा अपने परिवार को बचाये हुए था।
ऐसी अवस्था थी की न जाने कब इस परिवार पर हमला हो जाये और न जाने कब
वैदिक धर्म का यह अन्तिम स्तम्भ भी ध्वस्त हो जाये।
ईश्वर की इस सम्पूर्ण स्रष्टि में कोई भी घटना या दुर्घटना,न्याय या अन्याय ,पाप और पुण्य ईश्वर की इच्छा  के बगैर नहीं होता है। उनकी आज्ञा के बिना यहाँ कुछ भी संभव नहीं है। अगर यहाँ अन्याय अधिक बढ़ रहा है ,पाप अधिक बढ़ रहा है,दुष्टो से पृथ्वी त्राहि त्राहि कर रही है तो वह सब भी उन्ही की इच्छा से हो रहा है। ऐसी स्थिति में ईश्वरीय प्रांगण में,ईश्वरीय शरण में रहने वाले साधुओ की ,संतो की,साधारण मनुष्यो की रक्षा फिर कौन करता है। उसके संबंध में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं ही भगवद्गीता में  कहा है की -
"परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम 
धर्म संस्थापनाये सम भवामि युगे युगे।।
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अभ्युथानम् धर्मस्य तदात्मानं सृज्याहमं।।"  
साधुओ की,सत्य की,अपने धर्म पर स्थिर रहने वाले व्यक्तियों की रक्षा के लिए,दुष्टो का पापियो का विनाश करने के लिए मै युग युग में जन्म लेता हु। भगवान ने फिर कहा की -जब जब धर्म का पतन होता है ,तथा अधर्म का विस्तार होता है तब तब अधर्म के विनाश के लिये तथा धर्म की स्थापना के लिए मै सुगुण रूप में(अर्थात पंचमहाभूत शरीर के रूप में)खुद का सृजन करता हूँ।
भगवान के कथन पूर्ण सत्य होते है ,मिरगपुर की घटना से भी यह सिद्ध होता है।जब मोल्हड़ भगत जी अपने धर्म व परिवार की रक्षा के लिए सिर्फ ईश्वर पर ही आश्रित थे,उन्ही दिनों में गाँव में एक अद्वितीय,दिव्य संत का आगमन हुआ। संत का नाम फकीरा दास जी था।
जीवन परिचय :फकीरादास जी का नाम फ़क़ीर चन्द था। जिनका जन्म राजस्थान प्रान्त के जोधपुर रियासत के इन्दरपुर गाँव में हुआ था। इनके पिताजी का नाम मस्तु तथा माता का नाम चन्दोरी था। ये दो भाई थे। छोटे भाई का नाम मणिधर था। वैरागी भाव जन्म से होने के कारण इन्होने गुरु अलिमस्त से शिक्षा ग्रहण करने के बाद घर त्याग दिया था और फिर सम्पूर्ण देश में भ्रमण किया था। प्रत्येक जगह इन्होने वैदिक धर्म का प्रचार,प्रसार किया। दुष्टो का विनाश करते हुए साधुओ की रक्षा करते हुए फकिरादास जी ग्राम मिरगपुर पहुंचे।और यही से इस गाँव के आधुनिक इतिहास का प्रारम्भ हुआ।
 गुरु फकीरदास जी शाम के समय ग्राम मिरगपुर पहुंचे। दो दिन तक उस अदभूत संत के पास कोई नहीं आया। हिन्दू  दूसरे धर्म के इतने अधिक दबाव में थे,की वे गुरु जी के पास तक नहीं आये। दो दिन तक साधु बिना कुछ खाये पिये ध्यान में बैठे रहे।दो दिन बाद उन्होंने प्रकृति को आदेश दिया जिसके आदेश से गाय भैस चराने वाले कुछ चरवाहे गुरु जी के पास आये और भोजन के लिए पूछा।गुरूजी ने कहा गाँव में क्या जाना,ये भूरी झोटी ही ले आओ इसका दूध निकालेंगे।ग्वालो ने बताया की यह भैस तो अभी औसर है ,अर्थात यह अभी ब्याही ही नहीं  है। अतः यह दूध नहीं देगी। परन्तु गुरु जी के कहने पर वे भैस को ले आये गुरूजी ने अपने लोटे में उसका दूध निकाला। बालको से कहा की जाओ गाँव में सबको कह दो की भंडारा है सब को खीर बंटेगी। ग्वालो ने कहा गुरूजी दूध एक ही लोटा है,और ग्रामीणो की संख्या अधिक है ,अतः आप ही भोग लगा ले।गुरूजी ने कहा कि  इस गाँव के साथ पडोसी गाँव भी आने पर इस दूध से बनी खीर खत्म नहीं होगी। जाओ सबको बुला लाओ। बालक पहले से ही आश्चर्य में थे की कैसे औसर भैस ने दूध दिया है। गुरूजी की बातो ने उन्हें और आकर्षित किया। सारी बात जाकर गाँव में बतायी। पड़ोसी गाँव तक भी यह खबर फ़ैल गयी। जिससे डरे हुए,घबराये हुए,बिखरे हुए वैदिक धर्म के अनुयायियों में पुनः हिम्मत आ गयी,उत्साह आ गया ,विश्वास हुआ की शायद ईश्वर ने हमारी सुन ली। सभी लोग गुरु जी के पास आये,गुरूजी ने सबको  भोग लगाया परन्तु लोटे का दूध ज्यो का त्यों रहा। इस घटना को देखकर मोल्हड़ भक्त समझ गए की ये साधारण संत नहीं है ,दिव्य पुरुष है। शायद ईश्वर ही संत रूप में आये है। गुरु जी के पास जाकर उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई की किस प्रकार उन पर बार हमले हो रहे है। गुरु जी ने पूछा की तुम धर्म बचाना चाहते हो या प्राण बचाना। मोल्हड़ भक्त ने जवाब दिया की गुरुदेव धर्म बचाना है प्राण जाने है तो चले जाए। गुरूजी ने फिर पूछा तम कितने लोग हो तो उन्होंने बताया की हिन्दू धर्म को मानने वाले गुर्जर जाति के हम सिर्फ सात ही बचे है।
गुरूजी ने आदेश दिया की आज रात आततायियों को मार डालो ,सिर्फ 40 लोग ही तुमसे बचेंगे। भक्त के लिए गुरु जी के वचन ईश्वर के वचन थे। उन्होंने वैसा ही किया सुबह तक सब को मारते रहे और पास में बहने वाली काली नदी (जो आज भी बह रही है) में डालते रहे। 40 लोग बचकर भाग गए,और दिल्ली जाकर सब घटना को दरबार में कह सुनाया। उस रात गुरूजी ने सब लोगो को तन्द्रा में ला दिया था जिससे कोई उठ ही नहीं पाया। फौज आई और भक्त परिवार के 5 सदस्यों को पकड़कर ले गयी। मोल्हड़ भक्त गुरूजी के पास आये और सब घटना कह सुनाई ,गुरूजी पहले से ही सब कुछ जानते थे। उन्होंने भक्त को विश्वास दिलाया की सुबह तक सब वापस आ जायेगे। रात को गुरूजी सूक्ष्म शरीर से दिल्ली पहुंचे ,कारागार की दीवारे तथा पांचो की जंजीरे तोड़कर उन्हें आजाद कर दिया। और गाँव जाने का आदेश दिया। जेलर व अन्य कारागार के रक्षक मूर्छित से हुए स्वप्न रूप से सब कुछ देखते रहे। उन्होंने सब घटना उच्च अधिकारी को बताई। अधिकारी ने उन्हें पकड़ने के लिए अधिक सेना के साथ दरोगा को गाँव में भेजा। पांचो गाँव आये,तो फिर काली नदी के तट पर गुरूजी को ध्यान लगाए देखा। उधर सेना भी नदी किनारे आ गयी।हाथी घोड़ो पर सवार सैनिको ने जैसे ही आगे बढ़ने का प्रयास किया ।हाथी,घोड़े आगे नहीं बढे ,सैनिको ने बहुत प्रयास किया परन्तु वे नदी के जल में नहीं गए।कई दिनों तक फौज नदी किनारे ही डेरा डाले रही परन्तु किसी ने आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की। कुछ दिनों बाद फौज वापस हो गयी,और मोल्हड़ भक्त का धर्म भी सुरक्षित हो गया।
अब जब मोल्हड़ भक्त ने गुरूजी से दीक्ष मांगी तो गुरूजी ने कहा -
"गंठा लसन तंबाकू जोई ,मदिरा मॉस तजे शिष्य सोई। 
हमारा धर्म  रहेगा जब तक मिरगपुर सुख पावेगा तब तक।।
सत्त साहिब श्रद्धालु जापि सदा पास में मोक्ष प्रतापी। "     
गुरूजी ने कहा की गंठा (प्याज),लहसुन ,मदिरा,मांस,तम्बाकू,बीड़ी,सिगरेट,गुटका आदि सभी नशीली चीज़ो का सेवन कभी मत करना जब तक मिरगपुर वासी इस नियम का पालन करेंगे,वो हमेशा सुखी रहेंगे।
तुम हमेशा सत्त साहिब मंत्र का जाप करते रहना,उसी से तुम भवसागर से पार जाओगे।
जब गुरूजी जाने लगे तब मोल्हड़ भक्त ने गुरूजी से कुछ निशानी मांगी तो गुरूजी ने पास में पड़े हुए एक पत्थर पर हाथ रखते हुए कहा की आज से तुम इस पंजा साहिब की पूजा करना। ये पंजा साहिब ही तुम्हारे सब मनोरथ पुरे करेगा। आज भी वो पंजा साहिब ज्यो का त्यों बाबा फकीरा दास जी की दिव्य सिद्ध कुटी पर रखा है।जिसकी समस्त ग्राम वासी अपने इष्ट की तरह ही पूजा करते है।
यही  मिरगपुर गाँव की मुख्य विशेषता है। 10 हजार आबादी वाले इस गाँव में उपरोक्त तामसिक चीज़ो का कभी सेवन नहीं करते। इस गाँव का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो गाँव में,किसी कस्बे में,नगर में या महानगर में रहे परन्तु इस नियम का पालन करता है।इस गाँव के युवा पीढ़ी भी अपने बुज़ुर्गों द्वारा कहे गए नियम का पूर्ण पालन करते हैं।गाँव से बड़ी संख्या मे भारतीय सेना में भी जवान हैं,तो वहाँ कैसे उपरोक्त नियम का पालन होता होगा। शराब और मांस से तो आप बच सकते हैं,परंतु प्याज़ और लहसुन से बच पाना तो लगभग असंभव सा लगता है।और ट्रेनिंग के समय मे तो और मुश्किल है।परंतु वहाँ भी इस गाँव का जवान इस नियम का पालन करता है।जो इनकी द्र्ढ इच्छा शक्ति तथा गुरु बाबा फकीर दास में इनकी अटूट श्रद्धा को ही प्रदर्शित करता है।सेना में ट्रेनिंग के समय लगभग 1 वर्ष तक ये लोग मीठा ही खाते हैं,जैसे शाकर या बूरे के साथ रोटी का खाना, दही चावल के साथ रोटी खाना,जब कभी नमक का मन होता है,तो घर से लाये हुए आचार से रोटी खाते हैं।परंतु प्याज़ व लहसुन से बनी सब्जी का उपयोग नहीं करते हैं ।ट्रेनिंग के बाद धीरे धीरे वह ऐसी व्यवस्था कर ही लेता है की प्याज़ व लहसुन का तड़का लगाने से पहले अपनी सब्जी निकलवा ले।इस गाँव से कुछ इंजीनियर्स,डॉक्टर्स इंगलेंड,अमेरिका भी गए हैं।कुछ वहाँ पर नौकरिया भी कर रहे हैं।परंतु वहाँ पर भी ये इस नियम का पालन करते हैं।आज सभी जानते हैं की उन देशों मे इन चीजों का परहेज करना कितना मुश्किल है,परंतु वे लोग भी प्याज़, लहसुन, शराब, मांस, मछ्ली, अंडा, बीड़ी, सिगरेट, तंबाकू, गुटका, जैसी चीजों का सेवन नहीं करते हैं। आज के परिदृश्य मे ये पागलपन या कोरा अंधविश्वास या अनपढ्ता भी कही जा सकती है।परंतु फिर भी वे इस नियम का पालन करते हैं। अब इन चीजों का सेवन ना करने से क्या फायदे हैं। उनका वर्णन तो शायद मैं कर भी नहीं पाऊँगा परंतु फिर भी प्रयास करता हूँ।
वेदिक सभ्यता को, अपने धर्म को आगे बढ़ाने के लिए, प्रकृति के, मानव के,मानवता के, उपकार हेतू यहाँ पर यज्ञ चलता रहता है।मंत्रो का उच्चारण होता रहता है।साधु संतो का यहाँ बड़ा ही विशेष सत्कार किया जाता है। साधु संतो को तो यहाँ ईश्वर के समान समझा जाता है।मेहमान का बड़ा सम्मान होता है। सभी धर्मो के व्यक्तियों को अपनी मन्यताओ के अनुसार पूजा में सहयोग दिया जाता है।आपसी एकजूटता बहुत अधिक है।किसी एक के साथ कुछ होने पर पुरा गाँव एक हो जाता है।आज तक गाँव मे कोई चोरी नहीं हुई है।फकीरा दास जी की याद में दो मंदिर सिद्धकुटी व गुरुद्वारा है,जिस पर करीब 200 बीघा ज़मीन दान दी गयी है। इस गाँव का मुख्य व्यवसाय कृषि है। परंतु फिर भी यह सहारनपुर ज़िले का सबसे अधिक खुशहाल गाँव है।अगर कृषि पर आधारित गाँव की प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा निकाला जाए,तो शायद अमेरिका के गाँव मे जो केवल कृषि आधारित गाँव हैं,उनकी प्रति व्यक्ति आय इतनी नहीं होगी। इस गाँव की अपने आस पड़ोस के 17 गाँव मे ज़मीन है,जो इन लोगों ने अपनी मेहनत से खरीदी है।
इस गाँव मे भ्रूण हत्या नहीं होती है।बेटियों के पढ़ने के लिए यहाँ इंटर कॉलेज है। सभी गाँव की तरह यहाँ के लोग अपनी इज्जत के लिए जागरूक हैं।
अब कुछ वैज्ञानिक तथ्यों का भी वर्णन करता हूँ:-
यहाँ के व्यक्ति का औसत कद, औसत वज़न भारत के औसत कद व औसत वज़न से बहुत अधिक है। सभी बीमारियों का औसत भी भारत के औसत से बहुत कम है यहाँ पर व्यक्ति के दिमाग की सर्जन क्षमता अपने दायें बायेँ के गाँव से अधिक है।
अभी कुछ समय पहले पर्यावरण वैज्ञानिकों की सहायता से इस गाँव के वायुमंडल मे उपस्थित प्रदूषण की जांच कराई गयी जो पड़ोसी गाँव के वायुमंडल से बीस गुना कम हैं।यहाँ पर लगभग ना के बराबर ही श्वांस के रोगी है।कोई भी फेफड़ों का रोगी नहीं है।किडनी का भी कोई रोगी नहीं है।  शराब का सेवन नहीं है,अतः यहाँ लीवर संबंधी बीमारियाँ भी नहीं होती हैं।
सम्पूर्ण गाँव मे किसी भी व्यक्ति के माता पिता वृद्धाश्रम या अकेले नहीं रहते हैं।कोई भी व्यक्ति अपने पुत्र की शादी मे दहेज की मांग नहीं करता है, तथा पुत्री की शादी मे दिल खोल के खर्च करता है।
लगभग पूरे गाँव मे 2000 परिवार हैं,और लगभग सभी परिवारों के पास कृषि के अपने सभी यंत्र हैं, जैसे ट्रैक्टर ट्राली,हैरो,टीलर सभी हैं।
गाँव मे दूध और दही की नदियां बहती हैं।
ऐसे समय मे जब हर तरफ से देश के विरुद्ध गतिविधियों की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं।
इस गाँव के सभी लोग इसी मातृभूमि पर जन्म लेने की ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
क्योंकि इस गाँव मे 1300 के लगभग लाइसैन्सी हथियार हैं
जिनको इस गाँव के लोगों ने स्वयं की रक्षा के लिए सरकार से प्राप्त किए हैं।
अपने जन्म भूमि का वर्णन करने मे मुझे भी इतना ही गर्व महसूस होता है,जितना प्रत्येक मिरगवासी को होता है।लोग मेरी इस पवित्र जन्म भूमि मे अनेक कमियाँ भी कहते हैं,परंतु पूर्ण सत्य है,की मेरी इस जन्म भूमि से श्रेष्ठ कोई दूसरी भूमि इस धरा पर नहीं है।अपने प्रत्येक ग्रामवासी के तरह मैं भी यही चाहता हूँ की मैं बार बार इस पावन स्थली पर जन्म लूँ और गाँव की परंपराओं को आगे बढ़ाऊँ। 
गुरु बाबा फकीरा दास जी फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को मिरगपुर गाँव में आये थे। अतः इसी उपलक्ष में प्रतिवर्ष इसी तिथि पर ग्राम में मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमे देश के दूर दूर स्थान से श्रद्धालु आते है और अपनी मन्नत पूरी होने पर प्रसाद चढ़ाते है।
सभी का मेरी और मेरे गाँव की इस अनमोल अमृत तुल्य कथा को पढ़ने का,श्रवण करने का ,मेरे साथ मेरी इस दुनिया में आने का ह्रदय से धन्यवाद।
     blog : dailyyoga4health.blogspot.com 

5 Jul 2016

#Yoga Fights Diabetes प्रत्याहार

प्रत्याहार 
हठयोग प्रदीपिका में पांच उपदेश है प्रथम उपदेश में सिद्धो की लम्बी परम्परा व प्रथम अंग के रूप में १५ आसनो का वर्णन है।पथ्य अपथ्य का वर्णन है।  द्वितीय उपदेश में प्राणायाम तथा प्राणायाम में शीघ्रता व गलती से होने वाले रोगों का विवरण व शरीर की शोधन क्रियाए षटकर्म का वर्णन है। तृतीय उपदेश में १० मुद्राओं का वर्णन है।
चतुर्थ अध्याय में कुंडली जागरण, नादानुसंधान तथा समाधि की अवस्था का उल्लेख है।  
पंचम उपदेश में योगाभ्यास करते समय किसी गलती के होने से शरीर में होने वाले रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया है इस उपदेश में अनेक रोगों के उपचार की विधि बताई गयी है। 
उपयुक्त प्रथम चार उपदेशों का हम वर्णन कर चुके है पांचवे उपदेश का वर्णन हम आगे करेंगे।  
उससे पहले घेरण्डसंहिता में वर्णित चतुर्थ उपदेश प्रत्याहार का वर्णन करेंगे।  
घेरण्डसंहिता में हठयोग के सात अंग कहे गये है जो विभिन्न सात उपदेशों में वर्णित है।  
प्रथम उपदेश में शरीर शोधन की छ: क्रियाओं (षटकर्म) का वर्णन किया गया है द्वितीय उपदेश में आसनो का वर्णन है।  तृतीय उपदेश में मुद्राओं का वर्णन है चतुर्थ उपदेश में प्रत्याहार तथा पांचवे, छठे व सातवें उपदेश में क्रमशः प्राणायाम, ध्यान समाधि को रखा गया है।  
घेरण्डसंहिता में मुद्राओं के बाद प्रत्याहार तथा उसके बाद प्राणायाम का वर्णन है। प्राणायाम को हम आसन के बाद कह चुके है उसके बाद मुद्राओं का वर्णन किया। 
अतः अब ध्यान व समाधि के पहले प्रत्याहार का वर्णन करते है। 
प्रत्याहार अगर एक वाक्य में परिभाषित करू तो इंद्रियों का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है।
घेरण्ड संहिता में कहा गया है की -
"यतो यतो मनशचरति मनशचंचलमस्थिरम्।  
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
प्राणी जन्म लेने के बाद जैसे जैसे युवा होता जाता है इस स्थावर जंगम जगत में उसके मन का विचरण भी बढ़ता जाता है और जैसे जैसे मन विचरण करता है वैसे वैसे ही वह चंचल व अस्थिर भी होता जाता है अतः उन उन विषयों से मन को नियंत्रित करते हुए अपने वश में लाना चाहिए। इसी को प्रत्याहार कहा गया है। 
"पुरस्कांर तिरस्कार सुश्राव्य भावमायकम्। 
मनस्तस्मान्नियमयैत दात्मन्येव वशं नयेत।।"
घेरण्ड ऋषि कहते है की चाहे पुरस्कार हो या तिरस्कार सुश्राव्य हो या कटुश्राव्य ये सभी मायामय जगत के प्रपच्च मात्र है इसलिए इन सभी विषयों की और से प्रत्याहार द्वारा मन को नियंत्रित करते हुए आत्मा के अर्थात अपने वश में करना चाहिए। 
"सुगन्धों वापि दुर्गन्धो घ्राणेंषु जायते मनः।
तस्मात प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
चंचल मन हमेशा सुगंध या दुर्गन्ध को सूँघने में ही लगा रहता है इसलिए प्रत्याहार द्वारा मन को इन सभी सांसारिक वासनाओ की और से निरुद्ध करके अपने वश में रखना चाहिए।  
इसके बाद कहा गया है की -
"मधुरामभ्कत्तिकदिरसान याति यदा मनः। 
तस्मात् प्रत्याहरेदेतदात्मन्येव वशं नयेत।।"
मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त आदि जितने भी रस है उनकी ओर मन सहज रूप से आकर्षित रहता है उन सब की ओर मन को प्रत्याहार द्वारा नियंत्रित करके अपने वश में रखना चाहिए। 
विशलेषण:-
योग में दो प्रकार की क्रियाए होती है बाह्य व आंतरिक। स्थूल शरीर में की जाने वाली क्रियाए बाह्य होती है जैसे आसन, प्राणायाम मुद्राये तथा मन या चित द्वारा होने वाली क्रियाए आंतरिक होती है जैसे ध्यान और समाधि। प्रत्याहार इन दोनों किनारों के लिए सेतु का कार्य करता है।यह साधक को जो बाहय अंगो के द्वारा प्रयासरत है उसे आन्तरिक अंगो से जोड़ देता है। अर्थात जो साधक आसन प्राणायाम में प्रयासरत है। प्रत्याहार उसे ध्यान व समाधि की अवस्था में पहुंचा देता है।
अनुभवी साधको के अनुसार प्रत्याहार योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।
प्रत्याहार का स्वरूप क्या है यह तो एक अनुभवी साधक ही बता सकते है। परन्तु स्वयं की अनुभूति से जितना कह सकता हूँ उसका वर्णन साधको के लाभ हेतु कह रहा हूँ। प्रत्याहार योग का ऐसा अंग है जो साधक को जिसका सम्पूर्ण व्यवहार इस स्थूल जगत में होता है उसे सूक्ष्म जगत से (जिसमे ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियां उपस्थित है) जोड़ देता है। 
प्रत्याहार में इंद्रियों व कमेंद्रियों को उनके विषयों से संयोग होने से रोककर उन्हें अंतर्मुखी करना है।
 अगर ध्यान से आकलन किया जाए तो कहा जा सकता है की प्रत्याहार योग का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका महत्त्व बाह्य व आंतरिक अंगो से अधिक है। प्रत्याहार उस भवन के लिए नींव का कार्य करता है जिस भवन को योग में समाधि कहते है। किसी भी भवन के निर्माण में नींव की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। नींव जितनी मजबूत होगी इमारत भी उतनी ही  मजबूत होगी। प्रत्याहार भी समाधि के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण है है। प्रत्याहार की सिद्धि होने पर समाधि स्वभाव से ही प्राप्त हो जाती है।
मनुष्य का सम्पूर्ण व्यवहार इस स्थूल जगत में इंद्रियों के स्तर पर ही होता है। 
जैसे -आँखों से कोई दृश्य देखकर व्यक्ति उसी के अनुरूप कार्य करता है। अगर सामने से दिखायीं दिया की सामने से कोई तलवार लेकर हमें मारने के लिए आ रहा है तो व्यवहार में भय आ जायेगा  और वह बचने के लिए इधर उधर भागेगा।यही बात श्रवण इन्द्रिय कि भी है। अच्छे शब्द सुनने पर तथा बुरे शब्द सुनने पर उसी के अनुरूप वृत्ति हो जाती है। गंध के संबंध में भी वही बात है अच्छी या बुरी गन्ध से उसी के समान मनोवृत्ति बनती है। अर्थात कह सकते है की इन इंद्रियों के विषयो से संयोग होने पर ही मनुष्य की मनोवृत्ति का निर्माण होता है। यह मनोवृत्ति उसी के समान कर्म का निर्माण कराती है। या करती है। अर्थात मनुष्य उसी अच्छे या बुरेभाव से कर्म करता है। इस प्रकार किया गया कर्म या किसी भी भाव से किया गया कर्म बंधन का कारण बनता है। अर्थात बार बार आवागमन का कारण बनता है। मनुष्य बार बार जन्म लेता है ,अपनी मनोवृत्ति के अनुसार कर्म करता है। मरता है और फिर जन्म लेकर उसी के समान कर्म करता है। प्रत्याहार इस मनोवृत्ती को रोकने का एक साधन है। अर्थात प्रत्याहार से इंद्रियों के विषयों का संयोग रोक दिया जाता है। 
ऐसा नहीं होता की प्रत्याहार से आँखे कोई दृश्य नहीं देखती ,कान कोई शब्द नहीं सुनते या नाक कोई गंध ग्रहण नहीं करते,त्वचा से स्पर्श नहीं होता या जीभ किसी रस का ग्रहण नहीं करती है।
प्रत्याहार का साधक सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता,सब कुछ सुनते हुए भी कुछ नहीं सुनता ,सब कुछ सुंघते हुए भी कुछ नहीं सूंघता ,उसी प्रकार सब कुछ स्पर्श व रस ग्रहण करता हुआ भी कुछ नहीं करता।
अर्थात वह सब कुछ देखता भी है।सुनता भी है सूंघता भी है और स्पर्श भी करता है व रस भी ग्रहण करता है परन्तु दृश्य के प्रति उसकी कोई भी मनोवृत्ति नहीं  होती  है। किसी भी भाव में उसकी कोई आशक्ति नहीं होती है। शत्रु को तलवार लेकर आते हुए देखकर भी वह बिना किसी भय के,डर के रहता है। वह (अपने शरीर में इस जीवन में आशक्ति होने के कारण नहीं) ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस शरीर की रक्षा के लिए ,ईश्वर द्वारा प्रदत्त कर्तव्य कर्म समझकर अपना बचाव करता है। परन्तु उस बचाव में उसका अपना कोई भाव नहीं होता। शरीर भी ईश्वर प्रदत्त है ,कर्म भी ईश्वर प्रदत्त है और मृत्यु भी ईश्वर प्रदत्त। उसमे उसका न जीवन है और ना ही मृत्यु है। 
कानो से कोई मीठा या कटु शब्द सुनने के बाद भी वह किसी मनोवृति को प्राप्त नहीं होता शत्रु या मित्र द्वारा कहे गए शब्दों के प्रति वह अनाशक्त भाव से रहता है। गंध के साथ भी प्रत्याहार का साधक उसी भाव में रहता है अर्थात सुगन्ध या दुर्गन्ध के प्रति वह आकर्षित नहीं होता है। उसी सम अवस्था में रहता है। अन्य इन्द्रियों के साथ भी अर्थात कठोर या कोमल स्पर्श और किसी भी प्रकार का रस प्राप्त होने पर भी साधक उसे निस्वार्थ भाव से ,बिना किसी उद्वेग के शांत चित्त से ग्रहण कर लेता है।
अब यह सब कैसे सम्भव है और अगर यह सम्भव है तो कैसे -
इन सब प्रश्नों के उत्तर जब साधक साधना करता है  को स्वयं ही मिल जाते है।आम साधको को कुछ उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयत्न करता हु।
क्या व्यक्ति आँखों से ही देखता है ,कानो से ही सुनता है,नाक से सूंघता है तथा त्वचा से स्पर्श
व जीभ से रस ग्रहण करता है।
 अगर ऐसा है तो मृत्यु के बाद आँख,कान,नाक,त्वचा और जीभ अपने कार्य क्यों नहीं करते। अथवा अंधे की आँखे खुली होने के बाद भी उसे क्यों दिखाई नहीं देता है। उसी प्रकार बहरे को कान से क्यों सुनायीं नहीं देता है। उसी प्रकार त्वचा व जीभ से सम्बन्धित विषय कुछ लोगो को पता नहीं चलता है,क्यों । वो इसलिए की इन सब को चलाने वाली शक्ति कोई और होती है। वाही आंतरिक रूप से इन इंद्रियों का संचालन करती है।
कभी कभी हम महसूस करते है की हमारे सामने से कोई गुजर जाता है और हम उसे अाँखे खुली होने के बाद भी देख नहीं पाते।कई बार कोई कुछ कहता है लेकिन हम सुन नहीं पाते। कभी कोई स्पर्श करता है या कुछ खाते हुए भी हमे उस स्पर्श या रस की अनुभूति नहीं होती है। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है की इन सब से अलग कोई शक्ति है जो इन सब इन्द्रियों के चलाने का मूल है।
क्या है वह शक्ति ?
उस शक्ति को योग में चित्त कहा गया है अन्य शास्त्रों जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में इसे मन कहा गया है।
यह शक्त्ति मन ही है। मन को इन्द्रियों के समूह में ही रखा गया है। और इन्द्रियों का स्वामी भी कहा गया है। 
मन का वर्णन करते हुए  भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोनुविधीयते। 
तदस्य हरति प्रज्ञा वयुनिवभिवाम्भसि।।" 2 -67 
यह मन बड़ा बलशाली है। इन्द्रियों के समूह में से यह जिस एक इन्द्रिय के साथ जाता है। वह एक इन्द्रिय ही उस अयुक्त पुरुष की बुद्धि का हरण ऐसे कर लेती है। जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है। 
अब स्पष्ट हो गया कि उद्वेग या कोई भी भाव अथवा आसक्ति उस वक्त उत्पन्न होती हैं जब सम्बंधित इन्द्रिय के साथ मिलकर मन उस भाव को या उस विषय को ग्रहण करता है। 
प्रत्याहार द्वारा प्राप्त अवस्था,किसी भी इन्द्रिय का विषय से संयोग होने पर भी कोई आसक्ति ना  होना वास्तव में मन का निग्रह है। 
मन के निग्रह के फल के रूप में भगवान कहते हैं,कि -
"योगयुक्तो विशुद्वात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय :  
                        सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।"   अ ० 5 - श्लोक 7 
जिसका मन अपने वश में है। जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्तकरण वाला है। और सम्पुर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमात्मा ही जिसकी आत्मा है। ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उसमे लिप्त नहीं होता है।
 मन का निग्रह होने पर इन्द्रियों का निग्रह स्वतः ही हो जाता है परन्तु इस मन का निग्रह इतना आसान भी नहीं है।  इसी कारण अर्जुन जैसे धनुर्धर भी इस पर नियंत्रण पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। और कहते हैं कि -
"यो अयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसुदनं। 
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।"
हे मधुसूदन ये जो योग आपने समभाव से कहा है ,मन के चञ्चल होने से मैं इसकी
नित्य स्थिति को नहीं देखता हु।
पुनः कहते है की -
"चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम्। 
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायेरिव सुदुष्करम्।।"
हे वासुदेव श्री कृष्ण यह  मन बड़ा चञ्चल,प्रमथन स्वभाव वाला,दृढ़ और बलवान है। इसको वश में करना मैं  वायु को रोकने के समान अत्यन्त दुष्कर मानता हु।
अब यह मन इतना बलशाली व चंचल है तो प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों के साथ इसको कैसे वश में किया जा सकता है। क्योकि यह प्रयास के बाद भी वश में नहीं आता है। यह इंद्रियों के साथ विषयों का संयोग करा ही देता है। संयोग से आशक्तियां पैदा होती है ,जिससे जन्म  मरण का चक्र शुरू होता है। तो फिर प्रत्याहार की सिद्धि कैसे हो ,इंद्रियों से विषयों का संयोग होने से कैसे रोक जाए।
उसी कारण से आसन,प्राणायाम और मुद्राओं का वर्णन प्रत्याहार से पहले किया गया है। उपरोक्त अंगो का अभ्यास ही प्रत्याहार की भूमि को तैयार कर दृढ़ करता है। जिससे प्रत्याहार की सिद्धि हो जाती है।
 इसीलिए भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को मन को वश में करने का साधन बतलाते हुए कहा है की
"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। 
अभ्यासेन तू कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।"
निसंदेह ही यह मन बड़ा चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु हे कुन्ती पुत्र अर्जुन !अभ्यास और वैराग्य से यह वश में किया जा सकता है।
प्रत्याहार का पतञ्जलि योग शूत्र में योग के आठ अंगो  में से पांचवे अंग के रूप वर्णन है और अधिक विस्तार पूर्वक इसका वर्णन योग शूत्र के वर्णन के समय किया जाएगा।









30 Jun 2016

#Yoga Fights Diabetes नाद अनुसंधान

नाद अनुसंधान
नाद अर्थात शब्द, अनुसंधान कोई वस्तु जो पहले से विद्यमान है उसे दोबारा  खोजना।  
नाद अनुसंधान अथवा शब्दों को खोजना,
और शब्दों की यह खोज किसी बाह्य जगत में नहीं की जाती है।  बल्कि यह खोज तो स्वयं
के आंतरिक जगत की है।
शास्त्रों में कहा गया है,की जो कुछ भी इस जगत में है वो सब कुछ इस शरीर में है।
अर्थात पंचतत्व से बने सभी पदार्थ जो इस ब्रहमांड में उपस्थित है।वो सभी सूक्ष्म रूप
में इस शरीर में उपस्थित है।
 बाह्य जगत अनेक ध्वनियां जो हमें सुनाई देती है,वो सब ध्वनियाँ हमारे शरीर में भी होती रहती है।  परन्तु वे ध्वनियाँ बड़ी सूक्ष्म होती है,इसलिए सुनाई नहीं देती।योग के द्वारा बुद्धि जब सूक्ष्म होने लगती है तो उसकी पकड़ में सूक्ष्म विषय स्वभाव से ही आने लगे है।इन सूक्ष्म ध्वनियों को सुनने के लिए की जाने वाली यौगिक क्रिया ही नाद अनुसंधान कही गयी है।  
महर्षि गोरखनाथ ने नाद अनुसंधान की उपासना का वर्णन किया है,उन्होंने कहा है की वे सामान्य लोग जो तत्त्व ज्ञान को पाने में असमर्थ रहते है,उनको नाद की उपासना करनी चाहिए।  
घेरण्ड सहिंता में इसका वर्णन नहीं किया गया है।
 लेकिन हठयोग प्रदीपिका के चतुर्थ उपदेश में नाद अनुसंधान का वर्णन किया गया है।
और कहा गया है की - 
"मुक्तासने (सिद्धासन) स्थितो यपगी मुंडा संधाय शाम्भवीम। 
शृणुयाद्दक्षीणे कर्णे नादमंतस्थमेकधी:।।"  
साधक सिद्धासन में बैठ कर शाम्भवी मुद्रा लगाकर एकाग्रचित्त होकर अपने दाहिने कान से शरीरांतर्ग - ध्वनि को सुनने का प्रयास करे। 
कुछ समय अभ्यास के बाद 
"श्रवणपुटनयनयुगल घ्राणमुखाना निरोधन कार्यम्।
शुद्दुसुषुम्नासरणो स्फुटममल: श्रूयते नाद: ।।"  
दोनों कान, दोनों आँख, दोनों नासिका विवर और मुख को दोनों हाथो की अंगुलियों से बंद करके चित्त को एकाग्र करे तो कुछ अभ्यास के बाद साधक को स्पष्ट व पवित्र नाद सुनाई देता है। नाद की सुनने की विभिन्न चार अवस्थाये होती है। जिनमे विभिन्न अलग -अलग अनाहत नाद सुनाई देती है।
प्रारम्भ में यह क्रिया ऐसे ही है जैसे भ्रामरी प्राणायाम। अन्तर  इतना ही है की इस क्रिया में हमें कोई भी ध्वनी नहीं करनी है केवल अंदर की आवाज को सुनना है उस पर ध्यान लगाना है।
  जिनका वर्णन निम्न प्रकार है। 
आरम्भवस्था :
"बृह्मग्रन्थेम्रवेदभेदादानन्द: शून्यसम्भव:।
 विचित्र: कवणको देह्रअनाहत: श्रुय्ते ध्वनि: ।।
दिव्यदेहशच तेजस्वी दिव्यगन्धस्तवरोगवान। 
सम्पूर्णहृदय: शुन्य आरम्भे योगवान भवेत्।।"
आरम्भवस्था में ब्रह्मग्रंथ के भेदन के फलस्वरूप आनंद का अनुभव होता है। और अन्तः शरीर में शून्यसम्भूत असाधारण झंण - झंण रूप अनाहत शब्द सुनाई देता है।  
लाभ :
वह योगी जो इस अवस्था को सिद्ध कर लेता है,वह दिव्य देह वाला ओजस्वी, दिव्यगन्ध, निरोगी, प्रसन्नचित्त तथा शून्यचारी हो जाता है। 
घटावस्था  :
"द्वितीयाया घटिकृत्य वायुभवति मध्यग:। 
दृढ़सनो भवेद्योगी ज्ञानी देवसमस्तया।।
विष्णुग्रन्थेस्ततो भेदात परमानन्द सूचक:। 
अतिशून्य विमर्दशच भेरी शब्दसत्था भवेत।।"
योगी का आसन में दृढ़ होने पर दूसरी घटावस्था में जब विष्णुग्रंथि के भेदन से निबद्ध वायु का सुषुम्ना में संचार होता है,तब अतिशून्य अर्थात कपालकुहर में परमानन्द का सूचक एक वाद्ययंत्र भेरी एवं आद्यातजन्य जैसा शब्द सुनाई देता है। 
लाभ : 
इसकी सिद्धि के फलस्वरूप साधक ज्ञानी व देवतुल्य हो जाता है। 
परिचयावस्था : 
"तृतीय तु विज्ञेयो विहायो मर्दलध्वनि:। 
महाशून्य तदा याति सर्वसिद्धि समाश्रय:।।" 
तृतीय  परिचयावस्था में भ्रूमध्याकाश में ढोल की ध्वनि जैसा नाद सुनाई देता है। इसकी सिद्धि से प्राण सभी सिद्धियो को देने वाले महाशून्य (अंतराकाश या आज्ञाचक्र) में पहुंचता है।
लाभ :
"चितानन्द तदा सहजानन्दसंभव:। 
दोषदु:जजराव्याधिक्षुधानिडाविवर्जित:।।"
इस अवस्था में साधक को दोष-दुःख, जरा ,व्याधि, क्षुधा, निद्रा से रहित सहज आनंद की परमानन्द अवस्था प्राप्त होती है। 
निष्पत्तिवस्था :
 रूद्रग्रंथि का भेदन कर जब प्राण आज्ञाचक्र स्थित शिव के स्थान पर पहुंचता है तो यही अवस्था निष्पत्ति अवस्था कहलाती है, इस अवस्था में साधक को वीणा का झंकृत शब्द सुनाई देता है। 
"रूद्रग्रंथि यदा भित्वा शव्रपीठगतोअनिल:। 
   निष्पत्तो वैणव: क्वणद्विणाम्वणो भवेत।।"
लाभ:
" एकीभुत तदा चित्त राजयोगभिदानकम् । 
सृष्टि संहार कर्ता सौ योगिशवरसमो भवेत् ।।"
इस अवस्था में चित्त सर्वथा एकाग्र होकर समाधि संज्ञक बनता है। और तब इस अवस्था में योगी सृष्टि संहार कर्ता ईश्वर के समान हो जाता है।  
विश्लेषण :
नाद अनुसन्धान में बताई गई उपरोक्त चार अवस्थाएं-
आरम्भावस्था, घटावस्था, परिचयवस्था व निष्पत्ति अवस्था है।
 मानव शरीर में सबसे महत्व की सुषुम्ना नाड़ी है।यह नाड़ी इडा व पिंगला के मध्य होती है तथा  रीढ की हड्डी में गुदा मार्ग से कुछ ऊपर प्रारम्भ होकर सहस्त्रार तक जाती है।समान्यत: प्राण क्रिया इडा व पिंगला से की जाती है।यही प्राण क्रिया सुषुम्ना से करने के लिए योग साधना से सुषुम्ना के अवरोधो को दूर करते है ।और प्राण को चलाते है। जब यह प्राण सुषुम्ना से गुजरता है तो शरीर के विभिन्न हिस्सो में अनेक अति विशिष्ट अति सूक्ष्म ज्ञान प्रदान करने वाली क्रियाए होती है।
नाद अनुसंधान भी ऐसी ही एक क्रिया है,जो सुषुम्ना में प्राण के चलने से होने वाला स्पंदन है। यह स्पंदन सुषुम्ना के श्रवण केंद्र को स्पर्श करने वाले स्थान पर स्थित बिन्दु के उत्तेजित होने से होता है ।
इस नाद अनुसंधान में तीन ग्रंथियो का भेदन कहा गया है,जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन निम्न प्रकार है ।
प्राण जब सुषुम्ना में ऊपर की तरफ चलने लगता है,
तो साधक को अनेक आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक अनुभूतियां होने लगती है ।
प्राण जब सुषुम्ना में ऊपर की तरफ चलता है तो सर्वप्रथम मूलाधार चक्र (सबसे नीचे स्थित चक्र) का जागरण होता है फिर स्वाधिष्ठान व मणिपुर का होता है। इन तीनों चक्रो में सुषुम्ना से आने वाले प्राण पर किसी प्रकार का आवरण नहीं आता।
परन्तु आगे के तीन चक्रो पर एक विशेष प्रकार आवरण आता है ।
अर्थात यह आवरण हृदय की कक्षा में अर्थात अनाहत चक्र में आता है।अनाहत को ही ब्रह्मग्रंथि कहते है ।
इस ब्रह्मग्रंथि का भेदन करने से अर्थात अनाहत चक्र को क्रियाशील करने से आरंभवस्था की प्राप्ति होती है ।
अर्थात इस अनाहत चक्र के क्रियाशील होने पर जब साधक हाथो से इंद्रियो के सब द्वारो को बंद करके चित्त को या मन को अंतर्मुखी करता है। अर्थात स्वयं के अंदर की तरफ ध्यान लगाता है ।तो उसे झण झण रूप अनाहत शब्द सुनाई देता है।इस अवस्था को प्राप्त साधक की देह दिव्य ओज से भर जाती है। उसके शरीर से एक प्रकार की दिव्य गंध आने लगती है।शरीर के रोग दूर हो जाते है उसका चित्त प्रसन्न रहने लगता है।तथा शून्य का आचरण करने वाला अर्थात चित्त की सब वृत्तियाँ और उनकी उथल पुथल दूर हो जाती है।साधक एक भाव में अर्थात सम अवस्था में रहने लगता है।इसके बाद जब प्राण विशुद्धि चक्र (विष्णुग्रंथि) में पहुंचता है तो उसमे उपस्थित आवरण का भेदन होने पर यह जाग्रत होता है ।तब साधक को इंद्रियो के द्वारो को बंद करके आंतरिक ध्यान लगाने से भेरी व आघातजन्य अर्थात हृदय को कपाने वाली ध्वनियाँ जिनको सुनने से शरीर का अंग अंग काँप जाए ऐसी ध्वनियां सुनाई देती है।जैसे ढ़ोल, नगाड़े, युद्ध में बजने वाले अन्य यंत्र तथा होने वाली अनेक भयानक आवाज़े साधक को सुनाई देती है।इन आवाजो को सुनकर भी साधक को शांत चित्त रहना चाहिए,घबराना नहीं चाहिए। ये अवस्था घटावस्था कहलाती है ।
तृतीय परिचय अवस्था में प्राण भ्रूमध्य आकाश में पहुंचता है अर्थात आज्ञाचक्र में पहुंचता है अर्थात वह सभी सिद्धियां प्रदान करने वाले अंतराकाश में पहुंचता है।
पतंजलि योगशुत्र में समाधि का वर्णन करते हुए उसके दो स्वरूप बताये गए है। सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात समाधि ।जिनका विस्तार पूर्वक वर्णन योगशुत्र की व्याख्या करते हुए आगे करेंगे ।
यहाँ आवश्यकतानुसार कहता हूँ।
 जब चित्त सब वृत्तियो का निरोध कर लेता है परंतु उसका कारण रहता है या वह अपने कारण में लीन नहीं होता है। वह समाधि सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है ।सम्प्रज्ञात समाधि की भी चार भूमियाँ या अवस्थाये (वितर्कानुगत,विचारानुगत,आनन्दानुगत तथा अस्मिताानुगत )होती है।
और जब चित्त सब वृत्तियो का निरोध करके स्वय भी अपने कारण में लीन हो जाता है।
 वह असम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है ।
यह समाधि ही योग की,जीव की,आत्मा की अंतिम अवस्था है।
 यह प्रथम आरम्भावस्था सम्प्रज्ञात समाधि की प्रथम अवस्था वितर्कानुगत समाधि कही जा सकती है।
या कह सकते की सम्प्रज्ञात समाधि की वितर्कानुगत समाधि इस प्रथम आरम्भावस्था में प्राप्त हो जाती है। हालांकि यह वितर्कानुगत समाधि प्रथम भूमि है।परंतु फिर भी बड़ी महत्व की है। इस समाधि में साधक के सामने पंच महाभूतों का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है जिससे साधक दिव्य देह वाला ओजस्वी, दिव्यगन्ध, निरोगी, प्रसन्नचित्त तथा शून्यचारी हो जाता है। द्वितीय घटावस्था विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था है इसमें सूक्ष्म भूतो का ज्ञान हो जाता है। तृतीय परिचयावस्था विचारानुगत सम्प्रज्ञात समाधि है।इस अवस्था में अहम् अस्मि की वृत्ति रहती है। शेष सभी वृत्तियो का निरोध हो जाता है। जिससे साधक की भूख,प्यास,निद्रा जैसे सभी वृत्तियो का निरोध हो जाता है।और उसे अहम् अस्मि इस भाव में एक परम आनन्द की प्राप्ति होती है। चौथी निष्पत्तिवस्था में साधक जब आज्ञाचक्र को जाग्रत कर लेता है,अथवा ये कहे की रुद्रग्रन्थि का भेदन कर जब प्राण आज्ञाचक्र में कहे गए शिव के स्थान में पहुंचता है।तब साधक द्वारा इंद्रियो के द्वार बंद कर आंतरिक ध्यान लगाने पर उसे वीणा का अति मधुर व सुरीला शब्द सुनाई देता है
निष्पत्ति की यह चतुर्थ अवस्था सम्प्रज्ञात समाधि की अंतिम भूमि अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात समाधि की अंतिम अवस्था है जहां विवेक ख्याति की प्राप्ति होती है ।
इस अवस्था की प्राप्ति के फलस्वरूप चित्त पूर्ण एकाग्र हो जाता है अर्थात सब वृत्तियो का पूर्ण निरोध होने लगता है। अर्थात यही से अंतिम अवस्था (असम्प्रज्ञात समाधि) की प्राप्ति के लिए के लिए साधक आगे बढ़ जाता है । इस अवस्था में साधक सृष्टि संहार कर्ता ईश्वर के समान हो जाता है ।
विशेष : प्रारम्भ में साधक को जो मेघ, भेरी आदि ध्वनियाँ सुनाई देती है अभ्यास क्रम बढ़ने के साथ ही सुनाई देने वाली इन ध्वनियों में भी सूक्ष्म से सूक्षतम अनेक नाद या शब्द या ध्वनि साधक को सुनाई देने लगती है वे ध्वनियां अनुभव जन्य  होती है,उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।
कहा जा सकता है की जब साधक नाद अनुसंधान की साधना करता है,तब प्रारम्भ में वर्णन की जाने वाली ध्वनियाँ सुनाई देती है।अभ्यास बढ़ने पर ऐसी दिव्य ध्वनियां या नाद सुनाई देने लगती है जो शब्दो में नहीं कही जा सकती है ।
सावधानियाँ : 
एकान्त वास में इसका अभ्यास करें
इस क्रिया से पहले लम्बे समय तक एक आसन में बैठने का अभ्यास कर ले।
इससे पहले कुछ देर अनुलोम विलोम व भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास कर ले।
उन दिनों में गरिष्ठ भोजन न ले।
लम्बी यात्रा से परहेज करें।
अधिक लोक व्यवाहार न करें।
अति विशष्ट निर्देष है की इस अभ्यास से पहले आसन प्राणायाम का अभ्यास
करके शरीर को पूर्ण शुद्ध कर ले।
जिससे की उस ऊर्जा के आने पर शरीर में उसे संभालने की शक्ति हो।
डरावनी ध्वनियां सुनने पर घबराए नहीं धैर्य के साथ उन्हें सुनते रहे।
बिना गुरु के निर्देशन के यह क्रिया न करें।  
   



















28 Jun 2016

#Yoga Fights Diabetes भुजङ्गिनी मुद्रा

भुजङ्गिनी मुद्रा 
 घेरण्ड संहिता में अंतिम मुद्रा के रूप में  इसका वर्णन किया गया है। 
"वक्त्रं किंच्चित्सुप्रसार्य चानिलं गलया  पिबेत।" 
साधक द्वारा मुख को थोड़ा खोलकर गले से वायु का पान करने को भुजङ्गिनी मुद्रा कहते है। अर्थात जिस प्रकार हम जल पीते है उसी प्रकार वायु का पान करना भुजङ्गिनी मुद्रा कहलाती है।
या ये भी कह सकते है की जिस प्रकार सांप अपने फन को उठाकर अपना मुँह खोलकर जीभ को अंदर बहार करता है उसी प्रकार साधक अपनी गर्दन को थोड़ा आगे की तरफ बढ़ाकर मुँह को उसी तरह खोलकर वायु का पान करे।
फल :-
 "सा भवेद भुजगी मुद्रा जरा मृत्युविनाशिनि।" 
यह मुद्रा जरा व् मृत्यु का नाश करने वाली है। 
"यावच्च  उदरे रोगंजीर्णादि विशेषतः। 
तत सर्व नाशयेदाशु यत्र मुद्रा भुजङ्गिनी।।"
इस मुद्रा के साधक को पेट का कोई भी रोग हो वह ठीक हो जाता है। कब्ज, अजीर्ण जैसे रोग ठीक हो जाते है।क्योकि इससे पाचक रसो का निर्माण होता है।   
सावधानियाँ :-
 मुख को थोड़ा सा खोले 
 वायु धीरे धीरे गले से ग्रहण करे। 
खाली पेट अभ्यास करे। 
 वायु दोष बहुत अधिक हो तो अभ्यास न करे।






27 Jun 2016

#Yoga Fights Diabetes काकी मुद्रा

काकी मुद्रा 
"काकचंचुवदास्येन पिबद्वायु शनैः शनैः। 
काकी मुद्रा भवेदेषा सर्वरोगविनाशिनी।।"
काक के चोंच के सामान मुख को कर के धीरे धीरे वायु का पान करना ही काकी मुद्रा कहलाती है. 
लाभ :- 
"काकी मुद्रा भवेदेषा सर्वरोगविनाशिनी। "
यह काकी मुद्रा समस्त रोगों का नाश करने वाली है 
"अस्याः प्रसादमात्रेंण काकवन्नीरुजो भवेत्।।" 
इसके प्रसाद स्वरुप साधक काक ( कौवे) के सामान रोग रहित शरीर वाला हो जाता है 
विश्लेषण :-  आयुर्वेद में कहा गया है की शरीर में होने वाली सभी व्याधियों शरीर में उपस्थित वात, पित्त और  कफ का सम  अवस्था में ना रहने का परिणाम है. इसमें भी वात  मुख्य है  वात से ही पित्त या कफ  भी संतुलन में नहीं रहते हैं यह मुद्रा वायु दोष को ही दूर करती है। जिस से पित्त व कफ  भी सम अवस्था में ही आ जाते हैं
सावधानियाँ :
खाली पेट अभ्यास करें।
वायु प्रदुषण वाले स्थान पर इस मुद्रा का अभ्यास न करें।
जिनको वायु दोष हो वे इसका अभ्यास।
 गठिया हो तो इसका अभ्यास न करें।
पेट में गैस बनती हो तो इसका अभ्यास ना करें।

#Yoga Fights Diabetes

#Yoga Fights Diabetes
माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने मन की बात के जून अंक में अगले एक वर्ष में भारत को योग द्वारा मधुमेह मुक्त करने का आह्वान किया है।जिसके लिए उन्होंने हैशटैग दिया है - 
 Yoga fights diabetes 
इस सम्बन्ध में किसी के पास भी अगर अपनी कोई रिसर्च हो तो वह माननीय प्रधानमन्त्री जी तक पहुँचाने का कष्ट करें। या फिर हम तक पहुचाये। हम उनके नाम से ही उस रिसर्च को वहाँ तक पंहुचा देंगे। इससे आपके द्वारा किसी और का भी भला होगा। 
अतः याद रखे -
# Yoga Fights Diabetes

  

25 Jun 2016

पाशिनी मुद्रा

पाशिनी मुद्रा 
घेरण्ड संहिता में कहा गया है कि :-
  "कण्ठे पृष्ठे क्षिपेत्पादो पाशवद दृढबन्धनम्। 
सा एव पाशिनि मुद्रा  शक्तिप्रबोधकारिणी " 


दोनों पैरो को गर्दन के पीछे ;पृष्ठ  भाग पर रखकर पाश के समान दृढ़तापूर्वक बंधन करना पाशिनी मुद्रा कहलाती है।  
लाभ :- 
"पाशिनी महती मुद्रा बलपुष्टिविधायिनी। 
साधनीया प्रयत्नेन साधकैः सिद्धिकांक्षिभिः।।"
इस मुद्रा के अभ्यास से बल व पुष्टि प्राप्त होती है। यह सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करती है, तथा सिद्धियो को प्रदान करती है।  
विश्लेषण :- इस मुद्रा के अभ्यास से पेट सम्बन्धी रोग दूर हो जाते है।रीढ़ की हड्डी लचीली होती है कमर दर्द, गर्दन दर्द नहीं होता है ,तथा फेफड़े व गुर्दो पर सकरात्मक प्रभाव पड़ता है।  पैर लचीले व मजबूत होती है।  यह मुद्रा को कुण्डलिनी भी जाग्रत करने में सहायक होती है। सावधानियाँ :
खाली पेट ही अभ्यास करें।
प्रारम्भ में धीरे धीरे इस मुद्रा का अभ्यास करें। 
पेट के रोग होया पेट का आपरेशन हुआ हो तो यह मुद्रा न करें। 
हर्निया या आंतो की कोई अन्य समस्या हो तो यह मुद्रा न करें। 
कंधो में दर्द,गर्दन में दर्द हो तो यह अभ्यास न करें। 
कमर में दर्द या रीढ़ की हड्डी की कोई समस्या हो तो यह अभ्यास न करें। 
गुर्दे में पथरी या अन्य समस्या हो तो यह मुद्रा न करें। 
घुटनो या जंघा में कोई समस्या हो तो यह अभ्यास न करें।



























24 Jun 2016

मातङ्गिनी मुद्रा

मातङ्गिनी  मुद्रा 
                        मातङ्गिनी मुद्रा  मातंग अर्थात हाथी  के समान बल प्राप्त कराने वाली यह मुद्रा है 
                              इस मुद्रा का वर्णन घेरण्ड  संहिता में किया गया है 
                                      "कण्ठमग्ने जले  स्थित्वा नासाभ्यां जलमाहरेत। 
                                       मुखान्नि रगमयेत्पश्चात पुनर्वक्त्रेण चाहरेत। 
                                       नासाभ्यांरेचयेतपश्चात  कुर्यादेवं पुनः पुनः।"
              किसी भी जगह कंठ पर्यत जल में निमग्न हो कर सर्वप्रथम नासाग्रो से जल को ग्रहण कर 
               मुख से बाहर निकालना उसके पश्चात पुनः मुख से जल को ग्रहण कर के नासाग्रो से
                 बाहर निकालना तथा बार बार इसी क्रिया को करते रहना ही मातङ्गिनी मुद्रा है।  
                                                                     लाभ : 
                                  " मातङ्गिनी परा मुद्रा जरा  मृत्युविनाशिनी। " 
               यह मातङ्गिनी मुद्रा साधक की  जरा व मृत्यु  का नाश  करने वाली है। 
                        इस मुद्रा का साधक सदा युवा ही बना रहता है 
                                 "कुर्यान्मातङ्गिनी मुद्रां  मातङ्ग ईव जायते। " 
           मातङ्गिनी मुद्रा का अभ्यास करने वाला साधक हाथी के सामान बल वाला हो जाता है।  
                                  "यत्र तत्र स्थितो योगी सुखमत्यन्तमुश्नुते। 
                                 तस्मात् सर्वप्रयत्नेन साधयेन मुद्रिकां  पराम।।" 
              इस मुद्रा का साधक चाहे किसी भी स्थान पर रहे इसकी सिद्धि के फलस्वरूप वह 
             परमसुख को प्राप्त कर लेता है।  इसलिए सुख की इच्छा रखने वाले व बल की इच्छा
              रखने वाले साधकों को सर्वप्रकार से प्रयत्न करके  इस मुद्रा की साधना करनी चाहिए। 
                                                  सावधानियाँ :
                                                   खाली पेट अभ्यास  करें। 
                                                    गुरु द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करें। 
                                                     जल शुद्ध हो। 
                                                     एकांत स्थान में यह मुद्रा करें।